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________________ आकस्मिक भेद — जिसमें प्राण सत्ता है ऐसे जीवों में भेद (Variation) आकस्मिक होते हैं । वंश - सिद्धांत - अस्तित्व - संघर्ष के लिये जो मदद मिलती है वह पीढ़ीदर-पीढ़ी संक्रांत होती जाती है। जैविक विकास क्रम में डारविन का आकस्मिक परिवर्तन एवं प्राकृतिक चुनाव लैमार्क का प्रयोजनमूलक परिवर्तन की कल्पना, वाइजमे जन्तुवीय परिवर्तन का संक्रमण सिद्धांत प्रस्थापित हुआ । का जैविक विकास की परम्परा में अनेक सिद्धांत प्रतिपादित हुए । इसी संदर्भ में मनोविश्लेषण, आनुवंशिकी जैसी स्वस्थ चिंतन धारा का विकास हुआ। जैविक विकास क्रम में जीव वैज्ञानिकों ने स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने, जीव कोशिका से कोशिका नाभि, नाभि से डी. एन. ए. (डाई औक्सोरिवोन्युक्लिक एसिड) से वंश सूत्र, वंश सूत्रों से जीन्स की यात्रा संपन्न की। विकासवाद के प्रमाण विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में स्पष्ट है। जीव की देह - रचना तरल पदार्थ से प्रारंभ होकर तरल ठोस बनता है, अस्थि, मज्जा आदि अंगों एवं इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है । यह विकास का ही क्रम है। भूगर्भशास्त्रियों के अभिमत से पृथ्वी का विकास भी अनेक अवस्थाओं से गुजरने के बाद हुआ है। रसायनशास्त्री के अनुसार सूक्ष्म-परमाणुओं के क्षेत्र में विकासजन्य परिवर्तन होता है। इस प्रकार विकासवाद के प्रमाणभूत विधानों से निश्चित है कि जीव और जगत के सभी क्षेत्रों में विकास का साम्राज्य है। मानसिक विकास — जिस जीव के मन होता है, वहीं मानसिक विकास संभव है। विकास यात्रा का सर्वोच्च पड़ाव है पंचेन्द्रिय जाति । पंचेन्द्रिय के भी दो विभाग हैं - असंज्ञी पंचेन्द्रिय', संज्ञी पंचेन्द्रिय । असंज्ञी जीवों के मन नहीं होता इसलिये शिक्षा उपदेश ग्रहण की क्षमता उनमें नहीं होती। उनकी चेतना इतनी प्रबुद्ध नहीं है। संज्ञी में नैरयिक, देव, गर्भज मनुष्य तिर्यञ्च सभी समाविष्ट हैं, किन्तु मानसिक विकास इनमें भी एक जैसा नहीं रहता । काफी न्यूनाधिकता रहती है। विकासोन्मुख संज्ञी जीवों में मस्तिष्क एवं मन की उपलब्धि है । पर मन का विशिष्ट विकास मनुष्य में ही पाया जाता है। अमनस्क का समनस्कता की ओर प्रस्थान क्रांतिकारी परिवर्तन है । चेतना के विकास में मन का प्रथम स्थान है। इसके आधार पर चेतना का ऊर्ध्वारोहण संभावित है। मन एक आभ्यन्तर इन्द्रिय है। इसे नो इन्द्रिय भी कहते हैं । इन्द्रिय सदृश होने पर इन्द्रिय नहीं है। विकासवाद : एक आरोहण १८३०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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