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________________ पातंजल योग दर्शन६२ में कर्म की चार जातियां बतलाई हैं-१. कृष्ण २. शुक्ल-कृष्ण, ३. शुक्ल, ४. अशुक्ल-अकृष्ण। ये क्रमशः अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध, शुद्धतर हैं। भावों के आधार पर गति का निर्माण होता है। जैन दर्शन में वर्णित लेश्या, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, जन्मान्तर आदि से सम्बन्धित है। लेश्या स्थूल-सूक्ष्म शरीर का संपर्क सूत्र है। लेश्या और आभामंडल हृदय की धड़कन, नाड़ी का स्पंदन रुक जाने से और मस्तिष्क की कोशिकाएं निष्क्रिय हो जाने से प्राणी की मृत्यु हो जाती है। यह वैज्ञानिक धारणा है। आधुनिक विचारधारा में आभामंडल क्षीण हुए बिना मृत्यु नहीं होती। जैन दर्शन के अनुसार आभामंडल का नियामक तत्त्व लेश्या है। सूक्ष्म शरीर से निकलने वाली विकिरणें रंगीन होती हैं। रंगों के आधार पर आभामंडल की गुणात्मकता एवं प्रभावकता जानी जाती है। जगत् के सभी जीवों के पीछे विद्युत् परमाणुओं का बुनियादी प्रवाह है, किन्तु आभामंडल सबका एक समान नहीं होता। इसका कारण चिन्तन एवं स्वभाव की भिन्नता है। भाव लेश्या प्रतिक्षण बदलती रहती है वैसे ही आभामंडल रूपान्तरित हो जाता है। व्यक्ति की भावधारा के अनुरूप आभामंडल में वर्ण का स्थानान्तरण हो जाता है। . जब पौधों की मृत्यु होती है तब उनसे विद्युत् शक्ति का तेजी से प्रक्षेपण होता है। विज्ञान ने सिद्ध किया, पौधों में भी सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और तेजोमंडल रहता है। द्रव्य लेश्या के आधार पर बाहरी व्यक्त्वि एवं भाव लेश्या से आंतरिक व्यक्तित्व बनता है। गति निर्धारण का मुख्य घटक भी लेश्या है। अध्यवसायों की प्रशस्तता एवं अप्रशस्तता से लेश्या को गति-नियामक मानने के लिये पर्याप्त प्रमाण हैं। चारों गतियों में प्रत्येक जीव सलेशी है। गीता६३ में कहा-अच्छे कर्म करने वालों की इस लोक-परलोक में दुर्गति नहीं होती है। पुण्य६४ क्षीण होने पर स्वर्गलोक से पुनः मर्त्यलोक में आ जाते हैं। सकाम कर्म करने वालों का आवागमन बंद नही होता। शुभ-अशुभ कर्म के साथ लेश्या का गहरा अनुबंध है। लेश्या संप्रत्यय अन्तःकरण की सही सूचना का मानक है। अशुभ से शुभ लेश्या की ओर .१६६ - जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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