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________________ इस संदर्भ में विचारणीय तथ्य है कि भूतकाल की घटनाओं के विस्मृत हो जाने से पुनर्जन्म का खण्डन नहीं कर सकते । स्मृति का विस्मृत हो जाना सहज है क्योंकि ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम सबका समान नहीं होता । कुछ लोगों का तर्क हैं, बचपन की घटनाएं वृद्धावस्था में याद रहती हैं तो पूर्वजन्म की क्यों नहीं ? इसका समाधान हीरेन्द्रनाथ दत्त ने किया है कि स्मरण शक्ति का सम्बन्ध मस्तिष्क है। पूर्वजन्मगत मस्तिष्क, मनुष्य की मृत्यु के साथ नष्ट हो जाता है। तब सबको एक-सी स्मृति कैसे रहेगी ? लोक व्यवहार में देखते हैं—एक स्थान पर, एक ही दृश्य को बहुत दर्शक देखते हैं फिर भी सबकी स्मृति एक जैसी नहीं होती । इस सम्बन्ध में न्याय-वैशेषिकों का अभिमत है - आत्मगत जो पूर्वसंस्कार इस जन्म में जाग्रत होते हैं वे संस्कार ही स्मृति को जन्म देते हैं। जहां संस्कार हो वहां स्मृति की अनिवार्यता नहीं है। क्योंकि स्मृति से पूर्व संस्कारों का जागरण आवश्यक है। पुनर्जन्म या देहान्तर प्राप्ति होने पर अनेक पूर्व संस्कार जाग्रत हो जाते हैं। अनेक विशिष्ट निमित्त भी उन संस्कारों को जाग्रत कर देते हैं। इनकी स्मृति होने से जाति स्मृति का ज्ञान हो जाता है। मैं कौन था ? कहां और कैसा था ? ३९ जैन दर्शनानुसार जीव का नये जन्म में प्रवेश और देहत्याग यातना रूप माना है। उस समय पूर्वजन्म की स्मृतियां प्रायः लुप्त हो जाती हैं। जैसे कोई भयंकर चोट, अतिभय, गहरा आघात, विशेष संकट, असह्य शारीरिक पीड़ा से बेहोश हो जाता है उस स्थिति में स्मृतियां विस्मृत हो जाती हैं। मनोवैज्ञानिक विस्मृति को अच्छा मानते हैं। क्योंकि ढेर सारी स्मृतियों का दबाव व्यक्ति को पागल बना सकता है। यदि उसके मस्तिष्क में पूर्वजन्म के घटना चित्र उभरते ही रहें तो वह उनमें तल्लीन हो जगत् के व्यवहारों से उदासीन हो जायेगा । तर्क उठता है, कुछ लोगों की मृत्यु आघात या दुर्घटना की स्थिति में होती है। फिर भी नये जीवन में उनकी स्मृति रहती है, यह क्यों ? उत्तर में इसे आपवादिक स्थिति ही कहा जाता है। उस के आर्त- रौद्र ध्यानजन्य संस्कार इतने प्रगाढ़ होते हैं कि भयंकर कष्ट में भी स्मृति नष्ट नहीं होती । वह किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का निमित्त पाकर उबुद्ध हो जाती है। डॉ. इयान स्टीवेंशन एक विख्यात परामनोवैज्ञानिक हैं। उनका मत है कि जिसकी मृत्यु प्रचण्ड आवाज सुनकर, आग्नेयास्त्र देखकर, बिजली गिरने के जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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