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________________ शरीर का रासायनिक परिवर्तन, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव की अल्पता-अधिकता भी व्यक्ति के व्यवहार की नियामक है। न्यूरो-इण्डोक्राइन तंत्र की संयुक्त प्रणाली का फंक्शन व्यक्तित्व के घटक तत्त्वों में मुख्य है। मानसशास्त्री मन के विभिन्न स्तरों के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। मन के तीन स्तर हैं-Conscious Mind चेतन मन, Subconscious mind अवचेतन मन और Un conscious mind अचेतन मन की संयुक्त क्रियाशीलता व्यक्तित्व-व्याख्या का महत्त्वपूर्ण बिन्दु बनती है। मनोविज्ञान इनके आधार पर मन की मूलभूत समस्याओं को समाहित करने का प्रयत्न करता है। मूल प्रवृत्तियों के संवेग, उद्दीपन द्वारा व्यवहार में परिवर्तन परिलक्षित होता है। मौलिक मनोवृत्तियां प्राणीमात्र में जन्मजात हैं। आज मनोवैज्ञानिक जिस बात की चर्चा करते हैं, उनका विवरण ढाई हजार वर्ष पूर्व के आगम साहित्य में उपलब्ध हो रहा है। महावीर ने आहार, भय, मैथुन आदि दस संज्ञाओं का निरूपण किया है। चेतना की विशेष अवस्था का नाम संज्ञा है। जो मानव-व्यवहार की मूल प्रवृत्ति है। इनकी उत्पत्ति बाह्य और आंतरिक उत्तेजना से होती है। दसों जीवन-संचालन की प्रेरक शक्ति के रूप में हैं। ___ मनोवैज्ञानिकों में फ्रायड के विचार भिन्न हैं। उसके अभिमत से लिबिडो (Libido) ही वास्तव में एक मूल प्रवृत्ति है । उससे ही संपूर्ण जीवन-व्यवहार संचालित होता है। मनोविज्ञान व्यवहार का शास्त्र है इसलिये लिबिडो को सारी प्रवृत्तियों का मूल मानता है। __ प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकडूगल का मूल प्रवृत्तियों सम्बन्धी विभाग, दस संज्ञाओं के साथ तुलनात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उसने मूल प्रवृत्ति चौदह मानी हैं। इनके उद्दीपन में सहायक सामग्री एवं संवेग हेतुभूत हैं। मानसिक परिवर्तन केवल उद्दीपन और परिवेश के आधार पर ही नहीं, उसमें नाड़ी संस्थान, जैविक विद्युत्, जैविक रसायन, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्रावों का भी योग रहता है। इसके अतिरिक्त सूक्ष्म जगत् भी हेतुभूत है। __ भारतीय दर्शनों में व्यक्ति के आचरण, व्यवहार आदि का मुख्य घटक कर्म है। परिवर्तन की प्रक्रिया में कर्म के स्पंदन, मानसिक चंचलता, शरीर का संस्थान ये सभी सहभागी बनते हैं। कर्मशास्त्र के अनुसार मोहकर्म के विपाक से व्यक्ति का चरित्र और व्यवहार बदलता है। मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों एवं उनके विपाकों के साथ मूल प्रवृत्तियों और मूल संवेगों की तुलना की जा सकती है। -जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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