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________________ जैन दर्शन में कर्म के अनुसार नियति का अर्थ इस प्रकार नहीं है। नियति का अभिप्राय कर्मों का नियत क्रम में संचित होकर समय के परिपाक से फल देने से है। __ आचार्य हरिभद्र ने नियति का स्वरूप जो बताया है-"जिस वस्तु को, जिस रूप में, जिस समय, जिस कारण से होना है, वह वस्तु उस समय, उस कारण से, उस रूप में निश्चित रूप से उत्पन्न होती है।' नियतिवाद के संपोषक विचार हैं। इसके बावजूद भी कर्म सिद्धांत को एकान्त रूप नियतिवादी नहीं कह सकते। यदि मानलें कि हमारे समग्र विचार, सारी क्रियाएं नियति के अधीन हैं तो पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं। न परिवर्तन करने में भी समर्थ हो सकेंगे। कर्मों के सम्पादन में व्यक्ति के आत्म-स्वातंत्र्य या पुरुषार्थ का प्रश्न है। जैन आगमों में पुरुषार्थवादी विचारधारा के अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं। उपासक दशाङ्ग में महावीर और सद्दालपुत्र का संवाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शन में पुरुषार्थवाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से कर्मों को निर्मूल कर मुक्ति का अधिकारी बन जाता है। कर्म का सिद्धांत कार्य-कारण का सिद्धांत है। भाव कर्म, द्रव्य कर्म को उत्पन्न करता है और द्रव्य कर्म, भाव कर्म को। भाव कर्म का द्रव्य कर्म निमित्त है। द्रव्य कर्म का भाव कर्म। दोनों का परस्पर बीजांकुर की तरह कार्य-कारण सम्बन्ध है। कर्म सिद्धांत के दोनों आधारभूत अंग हैं। जीव और पुद्गल की समन्वित अवस्था में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हैं। पूर्वबद्ध कर्मों के निमित्त से जीव के परिणाम और उन परिणामों के निमित्त से नये कर्मों का बंध। ऐसी अटूट श्रृंखला अनादिकालीन है। कर्म के उदय से आत्मा के जो भाव होते हैं उन्हें औदयिक भाव कहते हैं। जो कर्म सत्ता में हैं यानी जिनका उदयकाल अभी आया नहीं है ऐसे कर्मों को जिन भावों से उदय में लाया जाता है उसे उदीरण कहते हैं। उदीरणा में आत्मा के परिणाम कारण हैं, और कर्म का उदयावली में आना कार्य है। औदयिक भाव में कर्म का प्राधान्य है, उदीरणा में आत्मा के परिणाम मुख्य हैं। औदयिक भाव प्रतिसमय रहता है, जबकि उदीरणा के भाव पुरुषार्थ के साथ अनियत समय के लिये होता है। औदयिक भाव में उदीरणा की नियमा .१२०० - जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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