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________________ केवल वंशानुक्रम के आधार पर व्यक्तित्व को समझने का प्रयास, पर्याप्त नहीं कहा जाता क्योंकि कोई भी वंशानुक्रम व्यक्ति के पूर्व कर्मों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। इसलिये कर्म सिद्धांत ही महत्त्वपूर्ण है। मनोविज्ञान में आनुवंशिकता के साथ परिवेश (Environment) को भी स्वीकार किया है। परिवेश का भी अपना महत्त्व है। फिर भी उसे मूल कारण नहीं माना जा सकता। क्योंकि कभी-कभी उपादान की शक्ति निमित्तों को अप्रभावी बना देती है। मूल प्रेरणाओं (Primary Motives) का भी सम्बन्ध है। वे सबमें होती हैं किन्तु मात्रा में अन्तर है। किसी में कोई एक प्रधान है किसी में दूसरी। संवेगों के उद्दीपन (Stimulation) से व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है। मनोविज्ञान का सिद्धांत है-कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म के विपाक से व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार में रूपान्तरण होता है। कर्मवाद का आधार कषाय एवं योग है जो चेतना के बाह्य और भीतरी दोनों स्तरों से जुड़ा है। कर्मवाद का सिद्धान्त प्राचीन है। आप्त पुरुषों की अनुभूत वाणी है। जबकि मनोविज्ञान का जन्म केवल दो शताब्दी पूर्व हुआ है किन्तु तुलना की दृष्टि से एक-दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैं। कर्मवाद भावजगत् तथा प्राणी के आचरणों के मूल स्रोतों की व्याख्या करता है। मनोविज्ञान भी। अतः दोनों की साथ में युति कर दी जाये तो मनोविश्लेषण में चिन्तन एवं प्रयोगों को नई दिशाएं मिल सकती हैं। मनोविज्ञान चेतना के तीन स्तरों की व्याख्या करता है। ज्ञानात्मक (Cognitive), भावात्मक (Affective) और संकल्पात्मक (Conative)| मनोविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र अनुभव और व्यवहार है किन्तु कर्मवाद का मनोविज्ञान केवल पशु-पक्षी और मनुष्य के मन तक ही नहीं रुका, बल्कि उन सभी जीवों के आन्तरिक भावों की व्याख्या करता है जिनके मन नहीं होता। शरीर मनोविज्ञान में शरीर में स्थित ग्रंथियों का सूक्ष्म विवेचन है। बौना या लम्बा, सुन्दर-असुन्दर, स्वस्थ-रोगी, बुद्धिसंपन्न या बुद्धिहीन बनना ये सब ग्रन्थियों के स्रावों के प्रभाव हैं। स्राव ही इन सबको नियंत्रित करते हैं। कर्मशास्त्र में नामकर्म के कारण सुन्दर-असुन्दर आदि जो भी बनता है। शरीर का निर्माण नामकर्म के आधार पर होता है। कर्मशास्त्र और शरीरशास्त्र दोनों में भाषा का अंतर है। तथ्य समान हैं। शरीर मनोविज्ञान की भाषा में जिन्हें .११६ - जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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