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________________ है। जड़-सृष्टि का निर्माण अपने ही नियम से होता है। जैसे- भूकंप, चक्रीयवात, उल्कापात आदि में कर्म के नियम का कहीं हस्तक्षेप नहीं है । जीव-सृष्टि में जो वैषम्य है। विविधता है। उसका मूल कर्म है। यह कर्म का स्वरूप, प्रकृतियां, विपाकावस्था आदि से स्वतः ज्ञात हो रहा है। यहां महावीर और कालोदायी का संवाद प्रसंगानुकूल है। कालोदायी महावीर के उपपात में पहुंचा और प्रश्न उठाया भंते! जीवों के कर्मों का परिपाक होता है ? कालोदायी ! होता है। भंते! कैसे होता है ? कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है। वह भोजन आपातभद्र होता है किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें दुर्गंध पैदा होती है। वह परिणामभद्र नहीं होता। वैसे ही प्राणातिपात आदि अठारह पापों का सेवन आपातभद्र और परिणामविरस होता है । पाप कर्म का पाप विपाक स्पष्ट है । कालोदायी ने पुनः पूछा- भंते! जीवों के कृत कल्याण कर्मों का परिपाक कल्याणमय होता है ? होता है। भंते! कैसे होता है ? कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक, शूद्ध अठारह प्रकार के व्यंजनों से पूर्ण, औषध - मिश्रित भोजन करता है । वह आपातभद्र नहीं लगता किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें सुरूपता, सुवर्णता और सुखानुभूति होती है। वह परिणामभद्र होता है । इसी प्रकार प्राणतिपात आदि अठारह पापों से विरति आपातभद्र नहीं, परिणामभद्र है। वैसे ही कल्याण कर्म, कल्याण विपाक वाले होते हैं । ३८ दशाश्रुतस्कंध ९, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, आदि में भी कर्म विपाक की चर्चा है। बौद्ध दर्शन में राजा मिलिन्द ने नागसेन से पूछा- भंते ! जीव द्वारा शुभअशुभ, कुशल-अकुशल कृत कर्म कहां रहते हैं ? स्थविर नागसेन का उत्तर था - शरीर की छाया के समान ये कर्म भी जीव का साथ नहीं छोड़ते। उसके पीछे-पीछे चलते रहते हैं। कर्म कर्ता का अनुसरण करते हैं। कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता १०९०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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