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________________ मनोवृत्तियों में ही स्वीकार किया है। संक्रमण और उदात्तीकरण के उद्देश्य में साम्य है। ८. उपशम-कर्मों के उदय-उदीरणा को काल विशेष के लिये रोक देना या फल देने में अक्षम कर देना उपशम है। अन्तर्मुहूर्त तक मोहनीय कर्म की सर्वथा अनुदय अवस्था उपशम है। उपशम की अवस्था समाप्त होते ही कर्म पुनः अपना फल देना चालू कर देते हैं क्योंकि उपशम में कर्म की सत्ता विद्यमान है। ९. निधत्ति—यह कर्म की वह अवस्था है जिसमें कर्म के अवान्तर भेदों में रूपान्तरण नहीं होता है और न वे अपना फल दे सकते हैं।३१ इसमें उद्वर्तन, अपवर्तन के अतिरिक्त कोई अवस्था नहीं होती। इस अवस्था में समय-मर्यादा या अनुभाग का उत्कर्षण और अपकर्षण संभव है। १०. निकाचना—यह कर्मों की प्रगाढ़ अवस्था है। इसमें उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन कुछ भी संभव नहीं। न समय से पूर्व उनका भोग होता है। कर्म का जिस रूप में बंधन हुआ, उसी रूप में अनिवार्यतया भोगना पड़ता है। ये अवस्थाएं पुरुषार्थ की प्रतीक हैं। सम्यक् साधना से संक्रमण अवस्था में मोड़ देकर उन्हें अध्यात्म-विकास की ओर बढ़ाया जा सकता है। बौद्ध दर्शन में जनक, उपस्तंभक, उपपीलक, उपघातक-ऐसे चार प्रकार के कर्म स्वीकृत हैं। इनका कार्य भिन्न-भिन्न है। जनक- जन्म का हेतु है। जन्म ग्रहण करवाता है। उपस्तंभक-दूसरे कर्म का फल देने में सहायक बनता है। उपपीलक- दूसरे कर्मों की शक्ति को क्षीण करता है। उपघातक- दूसरे कर्म का विपाक रोककर अपना फल देता है। जैन दर्शन में वर्णित सत्ता, उद्वर्तन, अपवर्तन और उपशम के साथ तुलनीय है। बौद्ध-जनक जैन-सत्ता उपस्तंभक उद्वर्तना उपपीलक अपर्वना उपघातक उपशम कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता .१०५.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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