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________________ ७. गोत्रकर्म- गोत्रकर्म प्रतिष्ठित एवं अप्रतिष्ठित कुल में जन्म का कारण है। ८. अन्तराय- जो दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य शक्ति के उपयोग में अवरोधक बनता है, वह अंतराय कर्म है। उत्तर प्रकृतियों के अनुक्रम से भेद हैं५+९+२+२८+४+९३+२+५ = १४८ भेद हैं। कर्म प्रकृतियों का सम्बन्ध प्रकृति-बंध से है। पंच-संग्रह आदि में प्रकृति बंध के अन्य चार बंधों का भी निरूपण है। जैसे-सादि बंध,अनादि बंध, ध्रुव बंध, अध्रुवबंध। सभी प्रकृतियां पुण्य-पाप उभय रूप हैं। इनमें पुद्गल विपाकी, क्षेत्र विपाकी, भव विपाकी, जीव विपाकी-ऐसा वर्गीकरण भी है।२४ ___ कषाय और योग के निमित्त से कर्मों का आदान होता है। कषाय गोंद या पानी के तरह है तो योग हवा के समान है। जैसे-हवा द्वारा आई हुई धूल गीली या गोंदयुक्त दीवार पर चिपक जाती है। उसी प्रकार योग रूप हवा से गृहीत कर्मरज कषाययुक्त आत्म-प्रदेश रूप दीवार पर चिपक जाती है। समझना यह है कि सभी जीवों में न तो कर्मों की मात्रा समान होती है, न उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति। जैन चिन्तकों ने कम या अधिक मात्रा में कर्म परमाणु क्यों होते हैं इसका कारण योग रूप वायु के वेग को माना है।२५ कर्मों के वर्गीकरण की ऐसी विवेचना जैन दर्शन के अतिरिक्त कहीं उपलब्ध नहीं होती। किन्तु बंधन एवं जन्म-मरण की परम्परा के कारकों की व्याख्या जैन दर्शन की तरह बौद्धों के प्रतीत्य समुत्पाद में भी उपलब्ध है। उसका आशय है कि प्रत्येक उत्पाद का कोई प्रत्यय, हेतु या कारण अवश्य है। जब उत्पाद सहेतुक हैं तो हमारे बंधन या दुःख का भी हेतु कोई अवश्य होगा। जैन दर्शन में दर्शन मोह एवं चारित्र मोह में पारस्परिक कार्य-कारण सम्बन्ध स्वीकार किया है। बौद्ध दर्शन में अविद्या और तृष्णा का सम्बन्ध है। अविद्या या दर्शनमोह अहेतुक नहीं हैं। अविद्या का हेतु तृष्णा एवं दर्शन मोह का हेतु चरित्रमोह है। ___ बौद्ध दर्शन में प्रतीत्य समुत्पाद की बारह कड़ियों का उल्लेख है। जैन दर्शन के कर्मों का जो वर्गीकरण है, दोनों में काफी निकटता देखी जाती है। जैसे कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता -
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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