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________________ अविद्या के चार पाद हैं-अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र, दुःख में सुख और अनात्मा में आत्मा का ज्ञान है। जैन दर्शन में कषाय के चार पाद हैं कषाय. क्रोध मान माया लोभ टीकाकारों ने क्रोध और मान को द्वेष तथा माया और लोभ को राग की संज्ञा दी है। प्रमाद को बंध का हेतु इसलिए माना कि वह एक प्रकार का असंयम है इसलिए अविरति या कषाय में समाहित हो जाता है। सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो मिथ्यात्व एवं अविरति दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं हैं। कहीं-कहीं योग और कषाय को बंध का हेतु कहा है। योग, प्रकृति और प्रदेशबंध का निमित्त है। कषाय, स्थिति और अनुभाग का कारण है। नेमीचन्द्र शास्त्री सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लिखा- जिस चैतन्य परिणाम से कर्म बंधता है, वह भाव बंध है। कर्म और आत्म-प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाही हो जाना द्रव्य बंध है। कुल मिलाकर राग-द्वेष, कषाय या आश्रव-सभी आत्मा की वैभाविक अवस्थाएं हैं। विभाव बंध का कारक है। मिथ्यादर्शन अज्ञान का सूचक है। आत्मा की मूढ़ दशा है। दर्शन मोह से युक्त है। अयथार्थ दृष्टिकोण ही मिथ्यात्व (इग्नोरेंस) है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व का प्रतिपक्षी है। मिथ्यात्व के दो प्रकार हैं-विपर्यासात्मक और अनधिगमात्मक। __ “यद्यपि जीवादि पदार्थेषु तत्त्वमिति निश्चयात्मकस्य सम्यक्त्वस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं विविधमेव पर्यवस्यति-जीवादयो न तत्त्वमिति विपर्यासात्मकं । जीवादयोस्तत्त्वमिति निश्चयाभावं रूपानधिगमात्मकं च। तदाह वाचक मुख्यः अनधिगम विपर्ययौ मिथ्यात्वम् इति।" अर्थात् जीवादि तत्त्वों में निश्चयात्मक तत्त्व बुद्धि का नाम सम्यग्दर्शन है और इसका प्रतिपक्ष मिथ्यात्व है। जीवादि तत्त्वभूत पदार्थों में अयथार्थ बुद्धि विपर्यासात्मक मिथ्यात्व है और जीवादि तत्त्वभूत पदार्थ है-ऐसा ज्ञान ही न हो, उस अज्ञान को अनधिगमात्मक मिथ्यात्व कहते हैं। .९४. जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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