SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता मूर्त और अमूर्त, जड़ एवं चेतन, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध विचित्र है। दोनों का स्वभाव सर्वथा भिन्न है। फिर दोनों में सम्बन्ध कैसे हुआ ? कब हुआ? सम्बन्ध होने में मूलभूत कारण क्या हैं? ये प्रश्न जीवन के उषाकाल से ही मानव मस्तिष्क को झकझोरते रहे हैं। जिस प्रकार ये प्रश्न सनातन काल से चले आ रहे हैं उसी प्रकार इनका उत्तर साथ-साथ दिया जा रहा है। प्रत्येक चिन्तक ने अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार समाधान करने का प्रयास किया है। जैन दर्शन इस संयोग को अनादि मानता है। इसमें पौर्वापर्य नहीं निकाला जा सकता। दोनों शाश्वत भाव से साथ-साथ चल रहे हैं। यह कोई जटिल समस्या नहीं, प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार एवं जीवात्मा को अनादि माना है। आत्मा अनादि काल से ही कर्मबद्ध और विकारी है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ने जगत को ईश्वरकृत मानकर भी संसार तथा चेतन एवं शरीर के सम्बन्ध को अनादि स्वीकार किया है। अनादि नहीं मानें तो कर्म सिद्धांत की मान्यता निर्मल हो जाती है। यही कारण है कि उपनिषदों के टीकाकारों में शंकर को ब्रह्म और माया का अनादित्व मान्य करना पड़ा। भास्कराचार्य ने सत्य रूप उपाधि का ब्रह्म के साथ अनादि सम्बन्ध, रामानुज, निम्बार्क एवं माध्व ने अविद्या को अनादि कहा है। सांख्य दर्शन में प्रकृति एवं पुरुष, बौद्धमत में नाम एवं रूप का सम्बन्ध अनादि है। वल्लभ के अनुसार ब्रह्म और उसका कार्य अनादि है वैसे ही जैन दर्शन में जीव और कर्म का संयोग अनादि है। यदि कर्मों से पूर्व आत्मा को मानें तो उसके कर्म बंधन का कोई कारण नजर नहीं आता। कर्म को आत्मा से पूर्व कहा जाये तो कर्म का उत्पादक कौन था? –प्रश्न खड़ा होता है। उसका समाधान किसी के पास नहीं होगा। अतः इनका सम्बन्ध अपश्चानुपूर्वी कहना ही उचित है। अनादि-निधन है। कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy