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________________ 'विश्वविख्यात है। ५. श्री कालू आचार्य भिक्षु की वंश परंपरा में मुकुट के समान है, जिसका यश पृथ्वी पर फैला हुआ है, जो भ्रम रूप तम का विध्वंस करने के लिए मानो सूरज के रूप में उदित हुआ है । भैक्षव-वंश-वतंस - सम, पृथिवी - प्रथित-प्रशंस । कालू भ्रम-तम-ध्वंस-हित, जाणक उदयो हंस ।। ७. पुरुषोत्तम - तीर्थंकर के परोक्ष रूप को प्रत्यक्ष करने के लिए श्री कालू उपमा बन गए - तीर्थंकर को देखना हो तो श्री कालू को देखो। क्या विद्वज्जगत के सामने यह कल्पना की जा सकती है? अवश्य । पुरुषोत्तम से अप्रगट, करण रूप प्रत्यक्ष । मूल- तनय उपमानमय, किं वा दक्ष समक्ष ।। ८. पद-पंकज प्रमुदितमना, प्रणमी मधुर सुवास । भव-त्रासन-नाशन रचूं कालूयशोविलास ।। उस पुरुषोत्तम रूप श्री कालू के मधुर सुवास से सुवासित चरण-कमल को प्रमुदित मन से प्रणाम कर मैं ( आचार्य तुलसी) संसार के संत्रास का नाश करने वाले कालूयशोविलास की रचना करता हूं । यद्यपि मम मति रो विषय नहिं गुरुयशोविलास । तथापि तत्कृपया भवतु, सहसा सफल प्रयास ।। यद्यपि गुरु का यशोविलास करना मेरी बुद्धि की सीमा से परे है, फिर भी मैं जो प्रयास कर रहा हूं, वह उस महान गुरु की कृपा से ही सफल बने, यह मेरी मंगल आशंसा है । ६० / कालूयशोविलास-१
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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