SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम उल्लास उपजाति-वृत्तम् यदीयमाख्यं श्रुतिमार्गमाप्तं, भिनत्ति पापानि पुरार्जितानि । तं मूल सूनुं सुगुणैरनूनं, श्रये सदैवालिश्वि प्रसूनम् ।। जिनका नाम श्रवण ही पूर्वार्जित पापों का विनाश कर देता है, जो श्रेष्ठ गुणों से परिपूर्ण हैं, उन कालूगणी की शरण मैं वैसे ही स्वीकार करता हूं, जैसे भ्रमर फूलों की । शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम् 'श्रीरासीत् सततं तनू - सहचरी यस्य स्वभावाभिका, लुब्धो यस्य वपुष्यरंस्त सुगुणव्रातः सदा विश्वपूः । ज्यायां यस्य च विश्रुता विमलता त्रैलोक्यपूज्योऽपि यः, नम्रस्तं शिवतातिरस्त्विति गुरुं संप्रार्थये सोद्यमः । । श्री स्वभाव से ही जिनकी सहचरी थी, विश्व को पावन करने वाला गुण-समूह जिनके प्रति अनुरक्त था, जिनकी विमलता विश्व-विश्रुत थी और जो तीन लोक में पूज्य थे, मैं उन्हें विनम्रभाव से प्रार्थना करता हूं कि वे गुरुदेव ( श्रीकालूगणी) हमारे लिए शिवताति- शुभंकर हों । १. इस पद्य की एक विलक्षणता है कि इसकी प्रत्येक पंक्ति के आदिम और अंतिम अक्षरों एक विशिष्ट मंगल वाक्य 'श्री कालुपूज्याय नमः' की संरचना होती है । यह एक प्रकार से चित्रालंकार का सूचक है । उल्लास : प्रथम / ५७
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy