SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैमानिक देवों ने ईशानेंद्र को सूचना दी कि उनके शव की हालत बहुत बुरी हो रही है। ईशानेंद्र ने ध्यान दिया और वह क्रोध से भर गया। उसने वहीं बैठे-बैठे तेजोलब्धि का विस्फोट किया। समूची बलिचंचा में आग-ही-आग हो गई। भवनपति देव झुलसने लगे तो उन्होंने ईशानेन्द्र से क्षमा-याचना की और अपनी भूल पर अनुताप व्यक्त किया। यह प्रसंग भगवती सूत्र के तीसरे शतक (३/४७-५१) में वर्णित है। इस सन्दर्भ से यह बात प्रमाणित होती है कि तेजोलब्धि के प्रयोग में सात-आठ कदम पीछे लौटने का नियम नहीं है। जो व्यक्ति स्वयं में पूर्ण सक्षम नहीं होते हैं, वे पीछे हटकर अपनी शक्ति का विस्फोट करते हैं। किंतु शक्तिसंपन्न व्यक्ति के लिए इसकी अनिवार्यता नहीं है। भगवान महावीर ने अपने प्रबल सामर्थ्य से पीछे हटे बिना लब्धि-प्रयोग किया, इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है। ६७. भगवान ऋषभ ने प्रव्रज्या स्वीकार की तब उनके साथ चार हजार राजा और राजकुमार भी प्रव्रजित हुए। प्रव्रजित होनेवाले और प्रव्रज्या देखनेवाले सभी साधना के विधि-विधानों से अपरिचित थे। भगवान ऋषभ का मार्गदर्शन ही उनके लिए आलम्बन था। ऋषभ ने दीक्षित होते ही मौन व्रत स्वीकार कर लिया। मार्गदर्शन और वार्तालाप तो दूर, उन्होंने संकेत तथा दृष्टिक्षेप भी नहीं किया। उनके सहयात्री साधकों ने एक दिन प्रतीक्षा की, दो दिन प्रतीक्षा की, कई दिन प्रतीक्षा की, पर ऋषभ का मौन नहीं खुला। भूख, प्यास, निद्रा आदि शारीरिक दुर्बलताओं तथा मानसिक विक्षोभ को वे सहन नहीं कर सके। आखिर एक दिन उन्होंने सामूहिक रूप में निर्णय लिया कि वे न तो अपने घर जाने की स्थिति में हैं और न ऋषभ की इस महायात्रा में साथ देने में सक्षम हैं। अब तो कोई तीसरा विकल्प ही उन्हें त्राण दे सकेगा। एक-एक कर उन लोगों ने कई विकल्प स्वीकार किए। कोई कन्दाहारी बने तो कई फलाहारी। किसी ने जटा बढ़ाई तो किसी ने मुंडित रहना स्वीकार किया। गंगा नदी के तट पर साधकों की उस भीड़ ने तापसों की नई सृष्टि की। अपनी-अपनी अभिरुचि और क्षमता के अनुसार उनकी चर्या और विचारधारा अनेक रूपों में विभाजित हो गई। भगवान ऋषभ उन सबकी मनःस्थितियों के ज्ञाता थे। साधना-पथ से उनकी भटकन का बोध ऋषभ को था, फिर भी वे मौन रहे। क्योंकि तीर्थंकर छद्मस्थ अवस्था में केवल आत्मानुकम्पी होते हैं। उस समय वे न किसी को दीक्षित करते हैं, न शिक्षित करते हैं और न किसी प्रकार की व्यवस्था ही देते हैं। ६८. मुनि भीमराजजी आचार्यश्री तुलसी के प्रारंभिक अध्ययन में सहयोगी ३०८ / कालूयशोविलास-१
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy