SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८. चम्पानगरी में माकन्दी सार्थवाह के दो पुत्र थे - जिनरक्षित और जिनपालित। दोनों भाइयों ने ग्यारह बार लवण समुद्र की यात्रा कर अपने व्यापार को विस्तार दिया । बारहवीं बार वे फिर यात्रा करने के लिए उद्यत हुए। माता-पिता ने निषेध किया, पर वे नहीं माने और समुद्र - यात्रा के लिए चल पड़े । समुद्र में भयंकर तूफान आया। उनका जहाज टूट गया। टूटे हुए काष्ठखंड के सहारे तैरते हुए वे 'रत्नद्वीप' नामक स्थल पर जा पहुंचे। उस द्वीप की स्वामिनी रयणादेवी ने उनको आश्रय दिया। दोनों भाई उस देवी के साथ रहने लगे। एक दिन लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित देव की आज्ञा से रयणादेवी समुद्र की सफाई करने गई । जाते समय उसने दोनों भाइयों से कहा- 'दक्षिण वनखंड को छोड़कर सब जगह घूम सकते हो। मैं थोड़ी देर में लौटकर आ रही हूं।' दोनों भाई घूमते-घूमते दक्षिण दिशा में पहुंचे। उन्होंने सोचा - इस वनखंड में जाने का निषेध क्यों किया? चलकर देखें तो सही । दोनों भाई दक्षिण वनखंड का दृश्य देख भय से कांप उठे। वहां एक ओर हड्डियों के ढेर लगे थे, दूसरी ओर एक व्यक्ति शूली पर लटक रहा था । उसने अपना परिचय देते हुए कहा- 'मैं काकंदी का व्यापारी हूं। जहाज टूट जाने से यहां पहुंचा और एक छोटी-सी भूल के कारण इस स्थिति से गुजर रहा हूं। तुम लोगों की भी यही स्थिति होनेवाली है। यहां से बच निकलना चाहते हो तो पूर्व दिशा के वनखंड में शैलक यक्ष रहता है, उसकी आराधना करो।' दोनों भाई अविलम्ब वहां पहुंचे। यक्ष की आराधना की । यक्ष प्रसन्न हुआ उसने कहा- 'मैं तुम्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचा सकता हूं । किन्तु मार्ग में तुम्हें रयणादेवी वापस बुलाए तो उसकी ओर आंख उठाकर भी मत देखना ।' दोनों भाई इस बात से सहमत हो गए। यक्ष ने घोड़े का रूप बनाया और उनको अपनी पीठ पर बिठाकर आकाश मार्ग से दौड़ने लगा । देवी अपने काम से निवृत्त होकर लौटी। दोनों भाइयों को वहां न देख उसने अपने ज्ञान से देखा । उनके वहां से प्रस्थान की बात ध्यान में आते ही उसने उनका पीछा किया। निकट पहुंचकर वह उन्हें मोहित करने का प्रयास करने लगी। उसके करुणार्द्र विलाप और अभ्यर्थना पर जिनरक्षित का मन द्रवित हो उठा । उसने अनुरागपूर्वक देवी की ओर देखा । प्रतिज्ञा से च्युत होते ही यक्ष ने उसको नीचे गिरा दिया। देवी ने उसको खड्ग में पिरो लिया और टुकड़े-टुकड़े कर मार दिया। जिनपालित देवी का करुण क्रंदन सुनकर भी विचलित नहीं हुआ । यक्ष ३०२ / कालूयशोविलास-१
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy