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________________ अतः मैंने सब प्राणियों के साथ मैत्री का संकल्प कर लिया है।' बंदर खुश हुआ। सोचा-हमारे पशु-परिवार में भी साधुता आ रही है। ऐसी पवित्र आत्मा के चरण स्पर्श कर हम भी अपना कल्याण कर लेंगे। यह सोच वह वृक्ष के नीचे उतर आया। उसने वनराज से चरण-स्पर्श की अनुमति मांगी तो वह बोला-'भैया! ये सब उपचार हैं, मुझे इनकी कोई अपेक्षा नहीं है।' बंदर बोला-'महात्मन् ! आपको अपेक्षा नहीं है, पर मैं अपनी जरूरत के लिए ऐसा करना चाहता हूं। सिंह इस बात पर मौन रहा तो बंदर उसके निकट आया और नमस्कार-हेतु नीचे झुका। सिंह ने मौका देखा और बंदर की गर्दन पकड़ ली। बंदर सिंह के छल को समझ गया। बचाव की दृष्टि से उसने एक उपाय सोचा। वह एकदम खिलखिलाकर हंसने लगा। मौत के मुंह में हंसी! सिंह ने आश्चर्य के साथ इसका कारण पूछा। बंदर बोला-'आज मैं बहुत खुश हूं। क्योंकि आप जैसे महात्मा के द्वारा मेरी सहज सुगति हो रही है। मेरी हंसी का रहस्य यही है। अब आप कृपा कर मेरी इस जीवन-यात्रा को शीघ्र समाप्त करें। किंतु उससे पहले मेरे मन की एक तीव्र अभिलाषा है, उसे भी पूरी करें।' वनराज की सांकेतिक जिज्ञासा के उत्तर में वह बोला- 'मैंने आपका आक्रोश देखा है, पर यह बात बहुत पुरानी हो गई। वर्तमान में मैं आपके जीवन में अहिंसा और संयम देख रहा हूं, किंतु आपका हास्य कभी नहीं देखा। कृपा कर एक बार मुसकान बिखेर दें, मैं कृतकृत्य हूं।' अपनी प्रशंसा सुनकर सिंह इस बात को भूल गया कि बन्दर किस उद्देश्य से क्या कर रहा है। वह खिलखिलाकर हंसने लगा। मुंह खुलते ही बन्दर नौ-दो ग्यारह । वह वृक्ष पर चढ़कर रोने लगा। वनराज ने पूछा-'बन्दर! तुम मेरी पकड़ में थे तब हंस रहे थे और अब प्राण बच गए तब रो रहे हो, क्यों?' बंदर बोला-'वनराज! मैं उस समय हंसा था अपने बचाव के लिए और अब रोता हूं तुम जैसे सन्तों पर, जो भोली दुनिया को अपने फरेब में लेकर किस प्रकार धोखा दे देते हैं।' ५८. एक कथाभट्ट कथा सुनाता था। प्रतिदिन नई-नई कथाएं और प्रासंगिक चर्चा । श्रोता लोग अच्छा रस लेते थे। एक दिन चर्चा के संदर्भ में बैंगन पर बात चली। कथाकार ने पुस्तक में वर्णित बैंगन के अवगुण बताते हुए कहा-'यह बहुबीजा है, तामसिक है, बेगुण-गुणरहित है, इसलिए इसका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए।' श्रोता लोग पंडितजी के प्रतिपादन से प्रभावित हुए। कई व्यक्तियों ने बैंगन खाने का परित्याग कर दिया। परिशिष्ट-१ / २८३
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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