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________________ २२. कड़ो अभिग्रह को श्राविका, दृढ़धर्मिणी कहाई जी हो। जब लग अनुमति मिलै न घर री, भोजन री भरपाई जी हो।। २३. बीत्यो मास दूसरो बीत्यो, साम्य भावना भावै जी हो। आखिरकार बहोत्तरवें दिन, सहज्यां स्वर्ग सिधावै जी हो।। २४. तीनूं तरफ रह्यो प्रण पक्को, रतनी री कुर्वाणी जी हो। पति रो पत्थर दिल न पसीज्यो, क्रूर वृत्ति सहनाणी जी हो।। २५. बिन अनुमति नहिं दीक्षा दीन्ही, दृढ़प्रतिज्ञ श्री कालू जी हो। मर्यादा रो मान बढ़ायो, यद्यपि देव दयालू जी हो।। २६. कर विहार सरदारशहर स्यूं, रतनदुरग बहु ठाणे जी हो। नय्यासी मिगसर सुद बारस, राज्या गुरु राजाणै जी हो।। २७. वर्धमान मोच्छब री रचना, पोष मास में लागै जी हो। रीझ खीज गणिवर री समुचित, खमै श्रमण बड़भागै जी हो।। दोहा २८. सफल सारणा-वारणा, शासनेश कर्तव्य। श्रोता! स्थिर-चित स्यूं सुणो, एक संस्मरण श्रव्य ।। लावणी छंद २६. रिखिराम-पिता लच्छी री सुणी शिकायत, ततखिण तेड़ी गुरु करड़ी करी हिदायत। फूं-फूंकरतो अक-बक-सो बोलण लाग्यो, भीतर कषाय रो भूत भयंकर जाग्यो।। ३०. गलती से प्रायश्चित्त नहीं स्वीकार्यो, उलटो मुकाबलो-सो मूरख कर डार्यो। देखो यूं तस्कर कोतवाल नै डांटै, कोड़ी हारै काणी कोडी रै साटै।। ३१. तत्काल करै गण बा'र विधान-विधायक, अनुशासन भंग न सहै संघ रा नायक। सुण आयो सुत रिखिराम बाप ज्यूं बोले, प्रायश्चित में पखपात-घात विष घोले।। १. लिछमणदासजी दूगड़ २४० / कालूयशोविलास-१
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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