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________________ 'देखो द्वंद जगत में क्यूं? जग लग्यो कषाय-ममत में यूं। नहिं हृदय-प्रेम सतमत में यूं।। २०. थळी देश में विकट वेश में, द्वैध मच्यो इक भारी जी। पुर-पुर गांव-गांव घर-घर में, एक हि पवन प्रचारी जी।। २१. विनय विवेक नेकता नीति, न्याति-बंध नरमाई जी। पीढ्यां-दर-पीढ्यां री संचित गरिमा खूब गमाई जी।। २२. वैमनस्य विद्वेष विलगता, मच्छरता असुहाई जी। अविनय उच्छृखलता खलता, जनता खूब कमाई जी।। २३. मौखिक लेखिक विविध विचेष्टा कीन्ही जण अणजाची जी। ___'सुजन सयाने होत बावरे', आठ ठोर चित राची जी।। २४. सघन-सघन संबंध परस्पर, प्रेम पीढ़ियां तांई जी। पिण अन्योन्य कलह में कब कुण देखी सुणी भलाई जी।। २५. भ्रात-भ्रात अरु पिता-पुत्र मां-बेटी श्वसुर-जमाई जी। इण विग्रह में उतर-उतरकर, निज-निज अकल दिखाई जी।। २६. तेरापंथ पंथ जिण देशे एकछत्र छवि छावै जी। अविकल संघ एकता देखी, मानव मन चकरावै जी।। २७. अष्टम पट्टाधिप शांति-प्रतिमूर्ती कालू स्वामी जी। सदा सुधा उपदेश सुणावै, तो पिण मिटी न खामी जी।। २८. कई अज्ञान-मान-वश अपणो ओछो परिचय दीधो जी। धर्म-ओट निज गोठ पुरावण, अंवळो मारग लीधो जी।। २६. स्थानकवासी जो परवासी, तिणमें जा टंटोळो जी। थळी देश शुभ वेष वसावो, कोइ क टालवों टोळो जी।। ३०. गाम-गाम में धूम-धाम अति, घर-घर मचसी रोळो जी। पाछै सकल विपक्षी बैठा, अपणां पग पंपोळो जी ।। ३१. स्व-पर पक्ष रा दक्ष मनुज जब, सुणी सला आ छानी जी। समझावण आया सब ठाया, फिर-घिर कानीं-कानीं जी।। १. लय : रच रह्यो ज्ञान ज चरचा स्यूं २. देखें प. १ सं. ८५ ३. देखें. प. १ सं. ८६ उ.३, ढा.४ / १६५
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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