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________________ सघन सुकृत सम सिततम प्रवर पछेवड़ि एक । मुनिवर प्रधरावी नवी कीन्हो पद- अभिषेक ।। डीले डपटी दुपटी दीपै धवल प्रकाश । पूज्य - वदन रयणी - धणी प्रकटी ज्योत्स्नाभास ।। आचार्य श्री तुलसी ने अपने लेखन को शाब्दिक चमत्कार की सीमा से ऊपर उठाकर सैद्धांतिक और सांस्कृतिक परिवेश में प्रस्तुति देने का सलक्ष्य प्रयास किया है। एक निदर्शन देखिए अष्ट कर्म अरि-दल दली, हो अष्टम गुणठाण । अष्ट इला-तल ऊपरे, अष्ट महा-गुण-ठाण । । गंतुमना सुमना सदा, अष्ट मातृपद - लीन । महामना मथ अष्ट मद, अष्टम पद आसीन ।। अष्ट सिद्धि आगम-कथित, अष्ट आप्त परिहार्य । अष्ट रुचक रुचिकर तिणै, अष्ट अंक अविकार्य ।। उक्त पद्यों में तत्त्व - निरूपण के साथ आठ-आठ बातों की जो संयोजना की गई है, वह विलक्षण प्रतिभा की परिचायक है । तीसरे उल्लास की छठी, सातवीं और आठवीं गीतिका में सैद्धांतिक चर्चा को जिस सहजता और सरलता से प्रस्तुत किया गया है, वह पाठक की सैद्धांतिक मनीषा को स्फुरणा देने वाली है । कवि की जीवन-यात्रा निरंतर गतिशील यायावर की जीवन-यात्रा है । यात्रा अनुभव - वृद्धि का सशक्त माध्यम है। यात्राकाल में अनेक प्रकार के लोगों से संपर्क होता है । कवि स्वयं संत परंपरा के संवाहक हैं, अतः वे अपने समय के संत-संन्यासियों का विश्लेषण इस प्रकार करते हैं कइ भस्म-विलेपित गात्रा, शिर जटाजूट बेमात्रा । मृग-छाल विशाल बिछावै, मुख सींग डींग संभलावै ।। बाबा बाघंबर ओढ़े, गंगा-जमना-तट पोढ़े । कइ न्हा-धो रहै सुचंगा, कइ नंगा अजब अडंगा । । कइ पंचाग्नी तप तापै, जंगम थावर संतापै । ऊंचै स्वर धुन आलापै, कइ जाप अहोनिश जापै ।। कइ ऊं हरि-ऊं हरि बोलै, उदरंभरि मौन न खोलै । कइ डगमग मस्तक डोलै, भव-वारिधि ज्यान झकोलै ।। कालूयशोविलास-१ / १५
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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