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________________ मैं जानता हूं कि संस्कृत व्याकरणकारों ने वीतराग की अहिंसा-प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर ही नित्य विरोधी प्राणियों के द्वन्द्व समास में एकत्व का नियम बनाया है। ५. 'अद्धमागही' माग ही, वीतराग मुख-वाग। ___ सुर-नर-तिरि निज-निज गिरि, समझै सकल सुभाग।' वीतराग-मुख से निकली हुई अर्धमागधी वाणी मार्ग बन गई। देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सब सौभाग्यशाली प्राणी उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ रहे थे। ६. प्रमित वरण विवरण अमित, निहित हिताहित भान। पणती वा गिणती नहीं, करतां गुण-संख्यान।। तीर्थंकर की वाणी में वर्ण प्रमित (सीमित) हैं और उसका विवरण अमित है [प्रमाण-रहित] है। उसमें हित और अहित का विवेक निहित है। उसके पैंतीस अतिशय बतलाए गए हैं। यह एक सामान्य अवधारणा है। उस वाणी के गुणों की संख्या करें तो उसके अतिशयों की संख्या नहीं की जा सकती। ७. वाग्देवी देवी करी, सेवी सुज्ञ सुजात । पर बरबस सुणकर बच्यो, रौहिणेय विख्यात' ।। सुज्ञ और सुजात व्यक्तियों ने उस वाग्देवी की देवी के रूप में सेवा कर अपना कल्याण किया। और क्या, अनचाहे ही महावीर-वाणी को सुनकर रौहिणेय चोर भारी संकट से बच गया। घटना प्रसिद्ध है। ८. श्रुतविशारदा शारदा, वरदा भवतु सदेव। अब तीजै उल्लास री, रचना रचूं स्वमेव ।। वह श्रुत विशारदा शारदा (सरस्वती) सदा वरदाई हो। उसका वरद योग पाकर मैं स्वयमेव तीसरे उल्लास की रचना कर रहा हूं। १. देखें प. १ सं. ७३ २. देखें प. १ सं. ७४ उल्लास : तृतीय / १७७
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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