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________________ जीवन-वृत्त में एक प्रवेश-द्वार मिल गया, जिसके पथ-दर्शक स्वयं इसके रचयिता रहे हैं। मेरी पहली यात्रा एक यंत्रचालित यान की भांति मस्तिष्क की चौखट पर दस्तक दिए बिना ही हो गई। दूसरी यात्रा में आलोक-किरणों का स्पर्श हुआ। तीसरी और चौथी बार की यात्रा में कुछ आत्मसात जैसा हुआ तो मैंने जिज्ञासा के तटहीन अंतरिक्ष में प्रवेश किया और लेखक द्वारा प्रयुक्त शब्दों की अर्थयात्रा करने का प्रयास किया। किंतु मुझे अनुभव हुआ कि यह भी एक श्रमसाध्य कार्य है। ____ 'कालूयशोविलास' में आचार्यश्री कालूगणी का आभावलय पारिपाश्विक वृत्त-चित्रों के लिए एक स्वच्छ दर्पण के रूप में आभासित है। आचार्यश्री तुलसी ने जिस दिन इस संबंध में कुछ काम करने का निर्देश दिया, एक अनायास आविर्भूत स्वीकृति ने मुझे इस कर्म के प्रति समर्पित कर दिया। काम शुरू करने से पहले सोचा था कि दो-चार महीनों में इसे निपटा दूंगी। किंतु जब अपनी सीमाओं की ओर झांका, तब अनुभव हुआ कि 'कालूयशोविलास' पर काम करने की चाह विरल पंखों से सीमा-हीन नभ में अवगाहन करने और अथाह क्षीर-सागर को एक सांस में पी जाने की चाह जैसी असंभव कल्पना है। इस दृष्टि से सोचा गया कि समग्रता की अभीप्सा से मुक्त होकर एक बार प्रारंभिक कार्य में संलग्न हो जाना चाहिए, इस निर्णय के साथ ही मैंने आचार्यश्री के आशीर्वाद और मार्गदर्शन, इन दो तटों के बीच बहना शुरू कर दिया। प्रस्तुत संदर्भ में कृति की समालोचना मेरा उद्देश्य नहीं है, पर जो प्रसंग किसी भी दृष्टि से मन के तारों को झनझना गए, उनकी संक्षिप्त-सी चर्चा करने का लोभ-संवरण मैं नहीं कर सकूँगी। गुरु-शिष्य का संबंध चेतना के स्तर पर जुड़ता है। इस संबंध की स्वीकृति चेतना-विकास के लिए ही होती है। शिष्य अपने गुरु की प्रत्यक्ष सन्निधि अथवा परोक्ष रूप में उन्हीं से मार्गदर्शन पाकर नई यात्रा शुरू करता है, उस समय उसे सर्वाधिक अपेक्षा रहती है गुरु के वात्सल्य की। वह वात्सल्य कभी-कभी चेतना के स्तर से हटकर देह से अनुबंधित हो जाता है। दैहिक अनुबंध से प्रवाहित स्नेहधारा भी चैतन्य के ऊर्धारोहण में निमित्त बन सकती है। कालूगणी के प्रति मघवागणी के वात्सल्य का एक निदर्शन देखिए इक दिन शिशु पडिलेहण करतो, दीठो डांफर स्यूं ठंठरतो। तरुवर-पल्लव ज्यूं थरहरतो।। कालूयशोविलास-१ / १३
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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