SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 54 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद संस्कृत-प्राकृत मिश्रित पट्टावली में भी स्पष्ट उल्लेख है कि महाराजा खारवेल ने प्रवचन का उद्धार कराया था।' तृतीय वाचना-तृतीय वाचना के सन्दर्भ में जिनदासगणी (1वीं ई. शताब्दी) की नंदीचूर्णि में जो संकेत मिलता है उसी के अनुसार यहां पर तृतीय वाचना का विषय उल्लेख किया जा रहा है। यद्यपि नंदीचूर्णि का समय 7वीं ई. शताब्दी है। जिनदासगणी के अनुसार द्वादश वर्षीय दुष्काल के पश्चात् ग्रहण, गुणन एवं अनुप्रेक्षा के अभाव के कारण श्रुत नष्ट हो गया। उस दुर्भिक्ष में भिक्षा मिलनी दुष्कर हो गई। साधु संघ छिन्न-भिन्न हो गया और आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में श्रमण संघ मथुरा में एकत्रित हुआ। नंदीचूर्णि में इस वाचना के सन्दर्भ में दो तरह की मान्यताएँ मिलती हैं 1. सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिक सूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया। 2. अन्य कुछ का मत है कि इस काल में सूत्र नष्ट नहीं हुआ था, किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गए थे अतः एकमात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुनः प्रवर्तन किया। मथुरा में सम्पन्न होने के कारण इसे माथुरी वाचना भी कहा गया (नंदीचूर्णि, पृ. 13 [173])। इस प्रकार आगम और उनका अनुयोग लिखकर व्यवस्थित करने के बाद स्थविर स्कंदिल ने उसके अनुसार साधुओं को वाचना दी। इसी कारण से यह वाचना “स्कंदिल वाचना" नाम से भी प्रसिद्ध है।' जैकोबी का तो यहाँ तक कहना है कि चौथी ई.पू. की समाप्ति और तीसरी ई.पू. का प्रारम्भ जैन आगमों के लेखन का स्थान (समय) दे सकते हैं।' विन्टरनित्स का कहना है कि देवर्द्धिगणी ने आगमों का संकलन पुरानी पाण्डुलिपियों तथा स्मृति (श्रुति) परम्परा के आधार पर किया था। कहा जा सकता है कि देवर्द्धिगणी की वलभी वाचना के पूर्व हुई वाचनाओं के दौरान भी संभवतः आगम लिखे भी गए थे। 1. बेचरदास दोशी, जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, [प्रथम संस्करण, 1966], द्वितीय संस्करण, 1986, भाग-1, पृ. 130. 2. वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना, पृ. 108. 3. Jacobi thinks that we might place the writing of the works of the Jain canon towards the end of the 4th or beginninng of the 3rd century B.C. (SBE , Vol-22 Uttarādhyayanasūtra and Kalpasūtra, p. introduction xxxvii ff) Maurice Winternitz, History of Indian Literature, Vol.-II p. 418. 4. ..assuming that Devarddhi's labours consisted merely of compiling a canon of sacred writings partly with the help of old manuscripts, and partly on the basis of oral tradition. Winternitz, Ibid, Vol.-II, p. 417.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy