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________________ 52 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद 6. आगम वाचनाएँ (454/ 467 ई. सन् तक) कहा जाता है कि भगवान् महावीर के समय 363 मतवाद अस्तित्व में थे। महावीर ने जिस रूप में इन मतवादों का प्रतिपादन किया, उसी रूप में संभवतः आज शास्त्र रूप में हमारे सामने न हों। वो मतवाद जो शास्त्र में उल्लेखित हैं, उसे समय-समय पर हुई वाचनाओं का परिणाम कहा जा सकता है, जो श्वेताम्बर जैन आगम शास्त्र हमारे सामने है, वे देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अंतिम वलभी वाचना ( 454 ई. सन्) के संकलित हुए हैं। वह हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है लेकिन उससे भी पूर्व में भगवान् महावीर के उपदेशों को संकलित • एवं व्यवस्थित करने के लिए 3, 4 अथवा 5 वाचनाएँ हुईं, जिसमें इन मतवादों का संकलन अवश्य हुआ होगा। क्योंकि अंतिम वाचना देवर्द्धिगणी के पुस्तक लेखन से पूर्व में हुई वाचनाओं के समय लिखे गए सिद्धान्तों के अलावा जो ग्रन्थ प्रकरण मौजूद थे, उन सबको लिखकर सुरक्षित करने का निश्चय किया तथा दोनों वाचनाओं के सिद्धान्तों का परस्पर समन्वय किया गया ।' अतः यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि देवर्द्धिगणी वाचना के पूर्व की वाचनाओं में इन मतवादों का उल्लेख अवश्य था । भगवान् महावीर के निर्वाण के कई वर्षों तक आगम स्मृति के आधार पर ही चले आ रहे थे। लेकिन जब आचार्यों ने देखा कि श्रुत का ह्रास हो रहा है । उसमें अव्यवस्था हो रही है, तब जैनाचार्यों ने एकत्र होकर भगवान् महावीर के उपदेशों को । जैनश्रुत को व्यवस्थित करने के लिए वाचनाएँ की । यह ऐसा ही था जैसा बौद्ध इतिहास में भगवान् बुद्ध के उपदेशों को व्यवस्थित करने के लिए भिक्षुओं ने कालक्रम से कई संगीतियां की। जैनों की ये वाचनाएँ क्रमशः इस प्रकार हुईं प्रथम वाचना- भगवान् महावीर के निर्वाण के करीब 160 वर्ष पश्चात् नंदराजा' के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई । परम्परागत मान्यता तो यह है कि मगध में एक लम्बे दुर्भिक्ष ( द्वादश वर्षीय लगभग) के कारण जैन श्रमण संघ तितर-बितर हो गया । पुनः मिलने पर पाया कि उनका आगम ज्ञान अंशतः विस्मृत हो गया । अतः उस युग के आचार्यों ने एकत्रित होकर, श्रमणों ने एक-दूसरे से पूछ-पूछकर 11 अंगों को व्यवस्थित किया । किन्तु बारहवें अंग 1. कल्याणविजयजी, वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना, अहमदाबाद, 2004, पृ. 113. दलसुख मालवणिया, आगम युग का जैनदर्शन, तृतीय संस्करण, 1990), पृ. 19. 2. आगम युग का जैनदर्शन, तृतीय संस्करण, 1990, पृ. 94.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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