SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति 21 उन दिनों दहेज की प्रथा भी प्रचलित थी। स्त्रियां बहुत-सा दहेज शादी में अपने साथ लाती थीं। उपासकदशा में राजगृह के गृहपति रेवती अपने पिता के घर से आठ कोटि हिरण्य और आठ व्रज (गोकुल) दस-दस हजार गायों के व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में लाई तथा शेष 12 पत्नियां एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ तथा दस-दस हजार गायों को एक-एक गोकुल सम्पत्ति के रूप में पीहर से लाई थीं (उपासकदशा, 8.7 [68])। आगमिक काल तक स्त्री विवाह सम्बन्धी निर्णय लेने में स्वतन्त्र थी तथा यह भी उसकी इच्छा पर निर्भर था कि वह आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करे। भगवती में जयन्ती की प्रव्रज्या इसके उदाहरण के रूप में देखी जा सकती है (भगवती, 12.2.64 [69])। विवाह लड़की की सम्मति से ही किये जाते थे, ऐसा ज्ञाताधर्मकथा में द्रोपदी के कथानकों से स्पष्ट ज्ञात होता है। ज्ञाता में पिता स्पष्ट रूप से पुत्री से कहता है कि यदि मैं तेरे लिए पति चुनता हूँ तो वह तेरे लिए सुख-दुःख दोनों का कारण हो सकता है इसलिए अच्छा यही होगा कि तू अपने पति का स्वयं ही चयन कर (ज्ञाताधर्मकथा, I.16.1.31 [70])। द्रोपदी के लिए स्वयंवर का आयोजन किया गया था। अतः यह कहा जा सकता है कि आगम युग में स्त्री को पति का चयन करने की स्वतन्त्रता थी। जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में विवाह के विविध प्रकारों का उल्लेख मिलता है। जगदीशचन्द्र जैन ने “Life in Ancient India as Depicted in the Jain Canon and Commentaries" में विवाह के अनेक प्रकारों का विस्तार से उल्लेख किया है।' यथा-स्वयंवर, माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह, गंधर्व विवाह (प्रेम विवाह), बलपूर्वक विवाह (बलपूर्वक कन्या को ग्रहण कर विवाह) पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह। किन्तु इन प्रचलित विवाहों में किसी के समर्थन या निषेध का उल्लेख आगम और आगमिक व्याख्या-साहित्य में नहीं मिलता। इसके पीछे वास्तव में क्या कारण रहा, यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु इसके पीछे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैनधर्म की अपनी वैराग्यवादी परम्परा के कारण उसका प्रथम कर्तव्य और उद्देश्य व्यक्ति को संन्यास मार्ग के लिए प्रेरित करना रहा है। इसलिए प्राचीन जैन आगमों में विवाह पद्धति के उल्लेख नहीं मिलते। 1. Jagdish Chandra Jain, Munsiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd. [1st edn., 1947], Second revisededn., 1984, pp. 206-214.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy