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________________ महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति 19 विवाह के मामले में प्रायः घर के बुजुर्ग व्यक्ति सलाह मशविरा कर निर्णय लेते और अपने निर्णय को अपनी सन्तान से कहते। सन्तान का मौन, विवाह की स्वीकृति का सूचक समझा जाता। चम्पा नगरी के व्यापारी जिनदत्त ने सागरदत्त की रूपवती कन्या को सोने की गेंद से खेलते हुए देखा। यह देखकर जिनदत्त अपने लड़के के साथ सागरदत्त की कन्या के विवाह का प्रस्ताव लेकर सागरदत्त के पास पहुंचा। उसके बाद जिनदत्त ने घर जाकर लड़के के सामने यह प्रस्ताव रखा और उसने अपने मौन से इस सम्बन्ध की अनुमति प्रदान की (ज्ञाताधर्मकथा, I.16.41-49 [56])। साधारणतया अपनी ही जाति में विवाह करने का रिवाज था। जैन आगमों में ऐसा विवेचन मिलता है कि समान स्थिति तथा समान व्यवसाय वाले लोगों के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित कर, अपने वंश और कुल को शुद्ध रखने का प्रयत्न किया जाता था। ज्ञाताधर्मकथा में मेघकुमार ने समान वय, समान रूप और समान राजोचित पद वाली आठ राजकन्याओं से पाणिग्रहण किया (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.90 [57])। वैसे अपवाद रूप में विविध धर्मावलम्बियों में भी विवाह होते थे। उदाहरण के लिए राजमंत्री तेयलिपुत्र का एक सुनार की कन्या से (ज्ञाताधर्मकथा, I.14.12, 19 [58]), क्षत्रिय गजसुकुमाल का ब्राह्मण की कन्या से विवाह हुआ था (अन्तकृद्दशा, II.8.60 [59])। माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह में साधारणतया वर कन्या के घर जाता था। वर पक्ष वाला भी अपने यहां मित्र, ज्ञाति, निजी स्वजन और परिजनों को निमंत्रित करता, भोजन कराता तथा उनको वर के साथ बारात में ले जाता तथा वधू पक्ष की ओर से वर और बारात को बड़े आदर-सत्कार के साथ भोजन कराया जाता। ज्ञाताधर्मकथा में चम्पा के सागर के विषय में कहा गया है कि स्नान, बलिकर्म, कौतुक और प्रायश्चित्त करने के पश्चात् उसने अपने शरीर को अलंकारों से विभूषित किया तथा अपने मित्र और सगे-संबंधियों के साथ सुकुमालिका से विवाह करने के लिए वह सागरदत्त के घर पहुंचा। सागर और सुकुमालिका दोनों को एक पट्ट पर बिठाया गया तथा चांदी और सोने के कलशों से मज्जन कराकर अग्निहोम कराकर बालक सागर का कुमारी सुकुमालिका के साथ पाणिग्रहण करवाया (ज्ञाताधर्मकथा, I.16.50-51 [60])। अरिष्टनेमि ने सब प्रकार की औषधियों से स्नान कर, कौतुक मंगल आदि करके, दिव्य वस्त्र धारण कर, आभूषणों से विभूषित हो और गंधहस्ति पर सवार होकर विवाह के लिए प्रस्थान किया (उत्तराध्ययन, 22.9-10 [61])।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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