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________________ महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति 15 __ जीवन के प्रारम्भिक काल में शिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख तो आगमों में वर्णित है (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.84.85 [45]), किन्तु यहाँ पर जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में किसी आचार्य के समीप ब्रह्मचर्यपूर्वक ज्ञानार्जन की परम्परा का उल्लेख नहीं मिलता। श्रमण परम्परा में जीवन के दो ही विकल्प मान्य रहे हैं-गृहस्थ और श्रमण। श्रमण कोई गृहस्थ ही बनता है। अतः जीवन का प्रारम्भ रूप गृहस्थ ही है। वशिष्ट धर्मसूत्र के अनुसार सभी आश्रम गृहस्थाश्रम में स्थित होते हैं, (वशिष्ठ धर्मसूत्र, 8.15 [46])। किन्तु श्रमण परम्परा गृहस्थाश्रम की तुलना संन्यास आश्रम को श्रेष्ठ मानती है। इसलिए कहा गया है-गोचराग्र में प्रविष्ठ मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है, अतः गृहवास ही श्रेय है मुनि ऐसा चिन्तन न करे (उत्तराध्ययन, 2.29 [47])। जिस प्रकार की आश्रम व्यवस्था वैदिक परम्परा में उपलब्ध होती है, वैसी ही जैन आगमों में स्वीकृत नहीं दिखाई देती, किन्तु परवर्ती जैनाचार्य जिनसेन (770-850 ई. शताब्दी) ने आश्रम-व्यवस्था को जैन मान्यतानुसार बताकर इसे स्वीकार किया, उन्होंने आदिपुराण में कहा है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु-ये चार आश्रम जैन धर्म के अनुसार उत्तरोत्तर शुद्धि के परिचायक हैं (आदिपुराण, 39.152 [48])। जिनकी शुद्धि स्वयं अर्हन्त देव के मत में ही है (आदिपुराण, 39.151 [49])। इस प्रकार कह सकते हैं कि उत्तरवर्ती जैन परम्परा में ये चार आश्रम स्वीकृत रहे हैं। ब्रह्मचर्य को लौकिक जीवन की शिक्षा काल के रूप में, गृहस्थ को गृहस्थ धर्म के रूप में, वानप्रस्थ को ब्रह्मचर्य प्रतिमा से लेकर उद्दिष्ट विरत या श्रमणभूत प्रतिमा की साधना के रूप में अथवा सामायिक चारित्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। संन्यास आश्रम तो श्रमण जीवन के रूप में स्वीकृत है ही। इस प्रकार चारों ही आश्रम जैन परम्परा में भी स्वीकृत हैं।' वस्तुतः आश्रम का सिद्धान्त वैयक्तिक है, सामाजिक नहीं। यद्यपि यह सामाजिक जीवन के उच्च स्तर (निर्माण) के साथ भी जुड़ा हुआ था और मुख्यतः इस सिद्धान्त से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का आध्यात्मिक लक्ष्य क्या है, उसे किस ओर उन्मुख होना है तथा किस प्रकार वह विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अपने अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति करे। 1. सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अनुशीलन, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, खण्ड-1, 1982, पृ. 186.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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