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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद सुधरे । किन्तु इसके विपरीत चार्वाक मत का यह मानना था कि पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, परलोक को किसने देखा । अतः वर्तमान जीवन आश्रित एकांगी दृष्टि को महत्त्व देने के कारण वर्तमान जीवन को सुखमय बनाने की बात सोची। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज व्यक्ति स्वहित तक सीमित होता जा रहा है। वह देहवाद को सर्वाधिक मान्यता देता है । स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, परलोकादि प्रश्न अत्यन्त गौण हो गए, क्योंकि व्यक्ति अर्थ-केन्द्रित बन चुका है। आज आत्मवाद का बहुत महत्त्व नहीं रहा है । सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला है | व्यक्ति एकान्त देहवादी होता जा रहा है, इसने भयावह स्थितियों को उत्पन्न किया है। 1 230 सूत्रकृतांग में सर्वप्रथम पंचभूतवाद का निरसन किया गया क्यों ? कह सकते हैं कि आज की भांति उस समय भी देहवाद बहुत खतरनाक रहा होगा । यही कारण था कि सर्वज्ञों ने सर्वप्रथम इस वाद को पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत कर खण्डन किया। 2600 वर्ष बाद तक भी उस आप्त वाणी की प्रासंगिकता सिद्ध हो रही है । तृतीय अध्याय वेदान्त दर्शन मान्य एकात्मवाद से सम्बन्धित है । एक प्राचीन मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण जगत् में एक ही आत्मा है और वह विविध रूपों में - पशु, पक्षी, प्राणी, नदी, पर्वत आदि के रूप में अलग-अलग व्यक्त दिखाई देती है। तब वह भिन्न-भिन्न नामों से जानी जाती हैं किन्तु वास्तव में वह एक ही है । मूलतः यह उपनिषद्दर्शन की मान्यता है। जैन आगमों में इस वाद का स्पष्टतः खण्डन किया गया है - इस सिद्धान्त को मानने पर व्यक्ति के स्वकर्तृत्व का कोई मूल्य नहीं रहेगा । उसका पुरुषार्थ, कर्म आदि सार्थक नहीं होंगे। क्योंकि आत्मा तो एक है अतः एक के किये गए पुण्य-पाप का फल सबको प्राप्त होंगे जो असंभव है। एकात्मवाद के उदय का समय 600 ई.पू. से पहले का है । निःसंदेह आगमों में इसका खण्डन बहुत सार्थक है और महावीर के समय तथा उसके बाद के भारतीय दर्शनों में जिन विविध, अनेकात्मवादी ( आत्मा की अनेकता मानने वाले) दर्शनों (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, जैन आदि ) की स्थापना हुई, उन्हें वहीं से प्रेरणा मिली हो ऐसा बहुत संभव लगता है। ये दर्शन प्रत्येक आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व मानते थे । इन दर्शनों के सिद्धान्तों की भारतीय वैचारिक जगत् में बहुत सार्थकता प्रमाणित हुई, क्योंकि प्रत्येक शरीर
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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