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________________ महावीरकालीन अन्य मतवाद 195 जैन सूत्रों के अनुसार किल्विषिक आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाले होते हैं (I. भगवती, 9.33.240, II. औपपातिक, 155 [502])। अभयदेवसूरि के अनुसार अभियोगी विद्या और मंत्र का प्रयोग कर विचरण करते हैं (भगवतीवृत्ति, 1.2.113 [503])। . 7. चरक और परिव्राजक-चरक और परिव्राजकों तथा उनकी शिष्य परम्परा के बारे में पंचम अध्याय में उल्लेख किया जा चुका है। 8. तिर्यंच-इसमें संज्ञी समनस्क पंचेन्द्रिय जीव-जलचर, स्थलचर और खेचर (आकाश) तीनों में रहने वाले जीवों का ग्रहण किया है, जैसे-गाय, घोड़ा आदि। ये संज्ञी समनस्क पंचेन्द्रिय-जाति स्मरण ज्ञान प्राप्त कर पांच अणुव्रत स्वीकारते हैं और शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास द्वारा आत्मा को भावित करते हुए समाधि अवस्था प्राप्त कर पाप स्थानों की आलोचना कर, देहत्याग कर देवलोक में देवरूप उत्पन्न होते हैं. (औपपातिक, 156-57 [504])। 9. आजीविक-आजीविक श्रमण सम्प्रदाय भगवान महावीर के युग का बहुत प्रभावशाली एवं शक्तिशाली संघ था। आजीविक श्रमणों के बारे में विस्तृत विवेचन प्रस्तुत शोध के षष्ठ अध्याय नियतिवाद में किया जा चुका है। ___10. दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक-दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिकों की निहवों में गणना की गई है। जैन सूत्रों में सात निह्रवों तथा उनके धर्माचार्यों का उल्लेख मिलता है (I. स्थानांग, 7.140-141, II.औपपातिक, 1.160 [505])। निह्रव वे कहलाते हैं जो किसी एक विषय पर अपलाप करने वाले होते हैं। इस कोटि में उन साधुओं अथवा उन साधु सम्प्रदाय का समावेश होता है, जिनका किसी एक विषय में, पूर्व परम्परा के साथ मतभेद हो गया और जो उस पूर्व परम्परा से पृथक् तो हो जाते हैं, फिर भी वे किसी अन्य धर्म को स्वीकार नहीं करते। चर्या और लिंग की दृष्टि से ये प्रारम्भ में श्रमण होते हैं, किन्तु किसी कारणवश उनका दृष्टिकोण मिथ्या हो जाता है और मिथ्याभिनिवेश के कारण तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों का अपलाप करते हैं (औपपातिक, 1.160 [506])।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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