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________________ नियतिवाद 157 मार्ग को ढूंढकर और उसे अपनाकर वह अपने जीवन को सुधार सकता है। यहां तक कि मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। जैनदर्शन में कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत, काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ-इन पांचों समवायों को स्वीकार किया गया है (सन्मतितर्क प्रकरण, 3.53 [413])। आगम-साहित्य में एक ही स्थान पर इन पांचों के विषय में एक साथ निरूपण शायद उपलब्ध नहीं है, फिर भी भिन्न-भिन्न स्थलों में इनके विषय में निरूपण किया गया है। अनादि पारिणामिक भाव “स्वभाव" की सत्ता को बोध कराता है (तत्त्वार्थसूत्र, 5.42 [414])। काल के प्रभाव से होने वाले परिणमनों के विषय में अनेक स्थलों पर चर्चा उपलब्ध है। उदाहरणार्थ अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल-चक्र एवं उनके विभिन्न अंशों में पौद्गलिक एवं जैविक परिणमनों को लिया जा सकता है। अनादिकालीन अव्यवहार-राशि से किसी जीव का बाहर निःसरण काल-लब्धि का परिणमन माना जाता है। द्रव्य अविनश्वर होने के कारण अनादिनिधन है। उस अनादि निधन द्रव्य में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के मिलने पर अविद्यमान पर्याय की उत्पत्ति हो जाती है। जैसे-मिट्टी में घट के उत्पन्न होने का उचित काल आने पर कुम्हार आदि के सद्भाव में घट आदि पर्याय उत्पन्न होती है। इस प्रकार अनादि निधन द्रव्य में काललब्धि से अविद्यमान पर्यायों की उत्पत्ति होती है (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 244 [415])। इस प्रकार कालादिलब्धि से युक्त एवं नाना शक्तियों से संयुक्त पदार्थ के पर्याय-परिणमन को कोई पदार्थ रोकने में समर्थ नहीं है (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 219 [416])। कालवादी तो ऐकान्तिक रूप में काल को ही सब कुछ स्वीकार करता है। किन्तु काललब्धि में काल की कारणता के साथ पुरुषार्थ आदि की कारणता भी स्वीकार्य की गई है। पर कम से कम काल के सापेक्ष प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 1. जंबुद्दीवपण्णत्ती, दुसरा वक्षस्कार, (उवंगसुत्ताणि), जैन विश्वभारती प्रकाशन, लाडनूं, 1989. 2. श्वेता जैन, जैन दर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, 2008, भूमिका, पृ. xxxii. 3. भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर (कालवादी री चौपाई), संपा-आचार्य श्री तुलसी, संग्रहकर्ता मुनि श्री चौथमलजी, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, 1960, पृ. 95.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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