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________________ 132 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद 2. क्षणिकवाद की जैन दृष्टि से समीक्षा जैन आगमों में प्रत्येक सिद्धान्त के निरूपण में एकांगी दृष्टि को नहीं अपनाया। जहां एक ओर किसी रूप में क्षणिकवाद को स्वीकृति दी गई वहीं दूसरी उसका निरसन भी किया गया। क्षणभंगी पंचस्कन्धवादी एवं चतुर्धातुवादी अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कर यह कहते हैं-गृहस्थ, आरण्यक या प्रव्रजित कोई भी हो, जो इस दर्शन में आ जाता है, वह सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है (सूत्रकृतांग, I.1.1.19 [364])। महावीर उक्त तथ्य के निरसन में अपना मत रखते हुए कहते हैं कि किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रंथों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते। जो ऐसा कहते हैं वे दुःख के प्रवाह का तीर नहीं पा सकते। वे संसार, दुःख एवं मृत्यु के पार नहीं जा सकते, वे व्याधि, मृत्यु और जरा से आकुल इस संसार-चक्रवाल में नाना प्रकार के दुःखों का बार-बार अनुभव करते हैं। वे उच्च एवं निम्न स्थानों में भ्रमण करते हुए अनन्त बार जन्म लेंगे अर्थात् भवभ्रमण करेंगे (सूत्रकृतांग, I.1.1.20-27 [365])। __इस प्रकार यहां एकान्त दृष्टि से किसी दर्शन या मान्यता को स्वीकार करने पर मुक्ति की बात को महावीर निर्मूल सिद्ध करते हैं। बौद्धों के क्षणिकवाद के अनुसार न केवल आत्मा अपितु पदार्थ मात्र, कोई भी वस्तु, और उसकी क्रियाएँ क्षणिक हैं। इसलिए क्रिया करने के अनन्तर ही आत्मा का नाश हो जाता है। इस प्रकार आत्मा का क्रियाफल के साथ सम्बन्ध नहीं रहता। फल की उत्पत्ति के लिए क्रिया का दूसरे क्षण में रहना परम आवश्यक है, किन्तु बौद्धों के अनुसार तो क्रिया क्षणिक है और क्षणिक होने के कारण अपने फल को उत्पन्न किये बिना ही वह अतीत के गर्भ में विलीन हो जाती है। अतः कृतप्रणाश दोष उत्पन्न होता है अर्थात् किये गए कर्म का नाश और क्रिया के किये बिना प्राणी को स्वयं बिना किये हुए कर्मों के फल को भोगना पड़ता है। इस प्रकार यहां 'अकृतकर्म' भोग का दोष आता है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 44-45 [366])। इस प्रकार जिनके मत में पञ्चस्कन्धों या पञ्चभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है, उनके मतानुसार आत्मा ही न होने से सुख-दुःखादि फलों का उपभोग कौन और कैसे करेगा?
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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