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________________ 122 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद बौद्धदर्शन में आत्म तत्त्व अनित्यवाद या क्षणिकवाद के सिद्धान्त पर आधारित है। बौद्ध दर्शन का मन्तव्य है कि परिवर्तन या क्षणिकता ही यथार्थ सत् है और इस सिद्धान्त का प्रतिपादन भी अपने प्रसिद्ध कार्य कारण सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वारा सिद्ध किया। 'प्रतीत्यसमुत्पाद' का अर्थ है सापेक्षकारणतावाद। प्रतीत्य अर्थात् (प्रति + इ गतौ + ल्यप्) किसी वस्तु की प्राप्ति होना, समुत्पाद यानी अन्य वस्तु की उत्पत्ति यानी किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति (माध्यमिकवृत्ति, पृ. 10 [350])। बुद्ध का मन्तव्य था कि इस चीज के होने पर यह चीज होती है अर्थात् जगत् की वस्तुओं या घटनाओं में सर्वत्र यह कार्य-कारण का नियम जागरूक है (माध्यमिकवृत्ति, पृ. 10 [351])। बुद्धमत के अनुसार संसार में सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ हैं, कर्म है, जन्म है, मरण है, बन्धन है, मुक्ति भी है-ये सब कुछ हैं, किन्तु इन सबका कोई स्थिर आधार नहीं है अर्थात् नित्य नहीं है। ये समस्त अवस्थाएँ अपने पूर्ववर्ती कारणों से उत्पन्न होती रहती हैं और एक नवीन कार्य को उत्पन्न करके नष्ट होती रहती हैं। इस प्रकार संसार का चक्र चलता रहता है। पूर्व का सर्वथा उच्छेद अथवा उसका ध्रौव्य दोनों ही उन्हें मान्य नहीं हैं। उत्तरावस्था पूर्वावस्था से नितान्त अंसम्बद्ध है, अपूर्व है, यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। क्योंकि दोनों कार्य-कारण की श्रृंखला में बद्ध हैं। पूर्वावस्था के सब संस्कार उत्तरावस्था में आ जाते हैं, अतः इस समय जो पूर्व है, वही उत्तर रूप में अस्तित्व में आता है। उत्तर पूर्व से न तो सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु वह अव्याकृत है। ___हमारे चारों ओर विद्यमान यह चैतसिक और भौतिक जगत् परिवर्तनशील है। प्रतिक्षण, कोई नवीन वस्तु उत्पन्न होती है और वह तत्क्षण' ही समाप्त भी हो जाती है, जैसे-दीपक की लौ। दीपक की लौ प्रतिक्षण उत्पन्न होती है एवं नष्ट हो जाती है। उस जलती हुई लौ में तेल एवं वर्तिका भिन्न भिन्न होती 1. चुटकी बजाने जितने काल का 65 वाँ भाग क्षण है, इस प्रकार के 120 क्षण तत्क्षण कहलाते हैं। वस्तुतः उत्पाद के अनन्तर वस्तु का स्थिति के बिना नष्ट हो जाना ही क्षण है और क्षण क्षणिक है। धर्मचन्द जैन एवं श्वेता जैन, बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त, बौद्ध अध्ययन केन्द्र, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर, पृ. 46.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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