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________________ एकात्मवाद 115 सोम्य, प्रारम्भ में केवल 'सत्' ही था, यह एकमात्र अद्वितीय था। कुछ विद्वान् कहते हैं, प्रारम्भ में केवल 'असत्' था और यह एकमात्र अद्वितीय था। उस असत् से सत् उद्भूत हुआ। परन्तु हे सोम्य, ऐसा कैसे हो सकता है? असत् से सत् कैसे उद्भूत हो सकता है, अतः हे सोम्य! प्रारम्भ में एकमात्र अद्वितीय यह सत् ही था। उस (सत्) ने ईक्षण किया मैं बहुत हो जाऊँ-अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ। इस प्रकार (ईक्षण कर) उसने तेज उत्पन्न किया। उस तेज ने ईक्षण किया मैं बहुत हो जाऊँ-अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ। इस प्रकार (ईक्षण कर) उसने जल की रचना की। इसी से जहाँ कहीं पुरुष शोक (संताप) करता है उसे पसीना आ जाता है। उस समय वह तेज से ही जल की उत्पत्ति होती है। उस जल ने ईक्षण किया हम बहुत हो जाएँ-अनेक रूप से उत्पन्न हों। उसने अन्न की रचना की। इसी से जहाँ कहीं वर्षा होती है वहीं बहुत सा अन्न होता है। वह अन्नाद्य जल से ही उत्पन्न होता है। ___हे सोम्य! जिस प्रकार मधुमक्षिकाएँ मधु बनाती हैं और नाना दिशाओं से वृक्षों के रस को एकत्र करती हैं और उनको एक बनाकर एक रस तैयार करती हैं, उस समय उस रस (मधु) में यह अन्तर नहीं रहता कि मैं अमुक वृक्ष का रस हूँ; मैं अमुक वृक्ष का रस हूँ। इसी प्रकार हे सोम्य! जब सब प्रजाएँ 'सत्' में एकरूप हो जाती हैं तब उन्हें यह ज्ञान नहीं रहता कि हम 'सत्' से एकरूप हो गई हैं। इस संसार में वह कुछ भी रही हो, व्याघ्र या सिंह, वृक या वराह, कीट या पतंग, दंश या मशक, वह 'यह' (अर्थात् सत्) हो जाती है। वह यह जो अणिमा है, सब कुछ तद्प है। वह सत्य है, वह आत्मा है। हे श्वेतकेतु! 'तू वह है' (तत्त्वमसि)। 'हे भगवन्! मुझे फिर समझाइये'। 'बहुत अच्छा, हे सोम्य! यदि कोई वृक्ष के मूल में आघात करे तो वह जीवित रहते हुए भी केवल रसनाव करेगा, मध्य और अग्रभाग में भी आघात करता है तो वह केवल रसम्राव ही करता है और वृक्ष की एक शाखा को जीव छोड़ देता अथवा पूरे वृक्ष को छोड़ देता है तो सारा वृक्ष सूख जाता है। इस प्रकार हे सोम्य! तू जान कि जीव से रहित होने पर यह शरीर मर जाता है, जीव नहीं मरता। मेरे वचन पर श्रद्धा कर। वह जो यह अणिमा है तद्रूप ही यह सब है, वह 'सत्' है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतु! वह तू है। 'भगवन्! मुझे और समझाइए!' 'बहुत अच्छा। हे सोम्य! जिस प्रकार बंधी हुई आंख वाले पुरुष को
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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