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________________ एकात्मवाद 107 आत्मा असंख्यात प्रदेशी है-जैन आगमानुसार आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। आत्मा जब लोकपूरण केवली समुद्घात अवस्था को प्राप्त करती है तब आत्मा का एक-एक प्रदेश लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर अवस्थित हो जाता है। एक-एक जीवप्रदेश अविभक्त होने पर भी फैलाव की अपेक्षा से पृथक्-पृथक् (एक-एक आकाशप्रदेश पर एक-एक जीव-प्रदेश) हो जाता। यही सूक्ष्म अवगाहना है।' (I. स्थानांग, 8.114, II. दशवैकालिकनियुक्ति, 135, अवचूर्णि, पृ. 71 [312]) चूंकि लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या असंख्यात प्रदेशी आगमोक्त है (स्थानांग, 4.495 [313]) अतः आत्मा भी असंख्यात प्रदेशी सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीव को क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण, लोकपरिमाण भी कहा जा सकता है (भगवती, 2.10.144 [314])। उक्त आत्मस्वरूप विवेचन कुन्दकुन्दचार्य(1-2 शती) द्वारा भी पंचास्तिकाय में निरूपित किया गया-आत्मा जीव है, वह चैतन्य उपयोग वाला, किये हुए कों का कर्ता, पुण्य-पाप का कर्ता और उसके फल का भोक्ता है, शरीर परिमाण वाला, अमूर्त्तिक तथा कर्म संयुक्त है (पंचास्तिकाय, 27 [315])। उन्होंने भावपाहुड में उक्त विशेषताओं के अतिरिक्त आत्मा को अनादि निधन भी कहा (भावपाहुड, 148 [316])। कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने भी आत्मा के इसी स्वरूप का अनुकरण किया। जैसा कि नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्ती (11 ई. शताब्दी) ने आत्मा को उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, स्वदेहपरिमाणवाला, भोक्ता, संसारी तथा सिद्ध अर्थात् ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला कहा है (द्रव्यसंग्रह, 2 [317])। अतः कहा जा सकता है कि आगमों में जो आत्म स्वरूप विवेचित है, उसे ही बाद के आचार्यों ने वहाँ से ग्रहण कर अलग तरीके से प्रस्तुत किया। इस प्रकार जैनागमों में पर्यायदृष्टि से आत्मा को अनित्य बताया है, किन्तु द्रव्य दृष्टि से आत्मा को नित्य भी कहा है। आत्मा शरीर से भिन्न भी है, अभिन्न भी है। स्वरूप दृष्टि से भिन्न है और संयोग तथा उपकार की दृष्टि से अभिन्न है। आत्मा का स्वरूप चैतन्य है तथा शरीर का स्वरूप जड़ है। इसलिए दोनों भिन्न हैं। संसारावस्था में आत्मा और शरीर का दूध और पानी की तरह एकात्म संयोग होता है। इस शरीर से किसी वस्तु का संस्पर्श होने पर आत्मा 1. देखें, भिक्षु आगमविषय कोश, भाग-1, पृ. 276.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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