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________________ 75 पञ्चभूतवाद प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप से उनका पालन-रक्षण नहीं करता था। इस कारण अतीव कलुषित पापकर्मों का संचय करके मैं नरक में उत्पन्न हुआ हूँ । किन्तु हे पौत्र ! तुम्हें अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन-रक्षण में प्रमाद मत करना और न ही मलिन पाप कर्मों का उपार्जन करना । इस तर्क का केशी श्रमण निम्न समाधान प्रस्तुत करते हैं - हे राजन् ! जिस प्रकार अपने अपराधी को तुम इसलिए नहीं छोड़ देते हो कि वह जाकर अपने पुत्र- मित्र और जाति जनों को यह बताये कि मैं अपने पाप के कारण दण्ड भोग रहा हूँ, तुम ऐसा मत करना । इसी प्रकार नरक में उत्पन्न तुम्हारे पितामह तुम्हें प्रतिबोध देने के लिए आना चाहकर भी यहां आने में समर्थ नहीं हैं । नारकीय जीव चार कारणों से मनुष्य लोक में नहीं आ सकते । सर्वप्रथम तो उनमें नरक से निकलकर मनुष्य लोक में आने की सामर्थ्य ही नहीं होती। दूसरे नरकपाल उन्हें नरक से बाहर निकलने की अनुमति भी नहीं देते। तीसरे नरक सम्बन्धी असातावेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने से वे वहां से नहीं निकल पाते । चौथे उनका नरक सम्बन्धी आयुष्य कर्म जब तक क्षीण नहीं होता तब तक वे वहाँ से नहीं आ सकते । अतः तुम्हारे पितामह के द्वारा तुम्हें आकर प्रतिबोध नहीं दे पाने के कारण यह मान्यता मत रखो कि जीव और शरीर एक ही है, अपितु यह स्वीकृत करो कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है । केशी श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क प्रस्तुत किया - हे श्रमण ! मेरी दादी अत्यन्त धार्मिक थी। आप लोगों के मत के अनुसार वह निश्चित ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होगी। मैं अपनी दादी का अत्यन्त प्रिय था, अतः उसे मुझे आकर यह बताना चाहिए कि हे पौत्र ! मैं अपने पुण्य कर्मों के कारण स्वर्ग में उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी मेरे समान धार्मिक जीवन जीयो, जिससे तुम विपुल पुण्य का अर्जन करो व स्वर्ग में उत्पन्न हो, क्योंकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर मुझे ऐसा प्रतिबोध नहीं दिया, अतः मैं यही मानता हूँ कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। राजा के इस तर्क के प्रति उत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया - हे राजन् यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुकमंगल करके देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो, उस समय कोई पुरुष शौचालय में खड़ा होकर यह कहे कि
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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