SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वयं ग्रन्थकार की रची हुई संस्कृत - टीका भी है। टीका अथवा मूलग्रन्थ में रचयिता ने रचना-समय का निर्देश नहीं किया है। भाषा-शैली और विषय इन दोनों ही दृष्टियों से आय - ज्ञानतिलक 11वीं शताब्दी से पहले की रचना प्रतीत होती है। इस ग्रन्थ में 415 गाथायें और 25 प्रकरण हैं। प्रश्नशास्त्र की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है। इसमें वज्र, धूम, सिंह, गज, खर, श्वान, वृष और ध्वांक्ष इन आठ आयों द्वारा प्रश्नों के फल का सुन्दर वर्णन किया है। इन्होंने आठ आयों द्वारा स्थिर चक्र और चल - चक्रादिक की रचना कर विविध प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। इस प्रकार प्रश्नाक्षरों द्वारा फलादेश - विधि का निरूपण किया है। प्रश्नकर्त्ता की शारीरिक शुद्धि के साथ मान्त्रिक शुद्धि भी अपेक्षित है। आचार्य ने तन-मन की शुद्धि का वर्णन कर अन्त में मान्त्रिक शुद्धि का विधान किया है। प्रश्न- शास्त्र की दृष्टि से यह ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है। - आचार्य उग्रादित्य आयुर्वेद के विशेषज्ञ विद्वान् उग्रादित्याचार्य ने अपना विशेष परिचय नहीं लिखा है। इन्होंने अपने गुरु का नाम श्रीनन्दि, ग्रन्थ-निर्माण स्थान रामगिरि पर्वत बताया है। श्रीनन्दि नाम के कई आचार्य हुये हैं। नन्दिसंघ की पट्टावली में उल्लिखित श्रीनन्दि ही उग्रादित्याचार्य के गुरु हैं। इन श्रीनन्दि का समय संवत् 749 है। यदि इसको शक संवत् मान लिया जाये, तो उग्रादित्य आचार्य नन्दि - संघ के आचार्य सिद्ध होते हैं। - उग्रादित्याचार्य का ‘कल्याणकारक' नामक एक वृहद्काय ग्रन्थ प्राप्त है। इस ग्रन्थ में 25 परिच्छेदों के अतिरिक्त अन्त में परिशिष्ट-रूप में 'अरिष्टध्याय' और 'हिताध्याय' ये दो अध्याय भी आये हैं । ग्रन्थकर्त्ता ने प्रत्येक परिच्छेद के आरम्भ में जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार किया है। ग्रन्थ रचने की प्रतिज्ञा, उद्देश्य आदि का वर्णन गया है। परिशिष्ट-रूप में 'रिष्टाधिकार' में अरिष्टों का वर्णन और हिताध्याय में पथ्यापथ्य का निरूपण आया है। आयुर्वेद की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है। इनका समय ईस्वी सन् की 13वीं शताब्दी का मध्यभाग होना सम्भव है। इनकी निम्नलिखित रचनायें प्राप्त हैं प्रमाप्रमेय, कथा- विचार, शाकटायनव्याकरण-टीका, कातन्त्ररूपमाला, न्यायसूर्यावलि, भुक्ति-मुक्तिविचार, सिद्धान्तसार, न्यायदीपिका, सप्तदार्थी - टीका, एवं विश्वतत्त्वप्रकाश । यह विश्वतत्त्वप्रकाश भी किसी ग्रन्थ का एक परिच्छेद ही प्रतीत होता है । सम्भवतः पूर्ण ग्रन्थ आचार्य का दूसरा ही रहा होगा। भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 00 73
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy