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________________ श्रीधराचार्य का समय ईस्वी सन् की आठवीं शती का अन्तिम भाग या नवम शती का पूर्वार्द्ध है। श्रीधराचार्य की ज्योतिष और गणित-विषयक चार रचनायें मानी जाती हैं - 1. गणितसार या त्रिंशतिका; 2. ज्योतिज्ञविधि - करणविषयक ज्योतिष-ग्रन्थ; 3. जातकतिलक - जातक-सम्बन्धी फलित-ग्रन्थ; एवं 4. बीजगणित - बीजगणितविषयक गणित-ग्रन्थ। इनमें से जातकतिलक कन्नड़-भाषा में लिखित जातक-सम्बन्धी ग्रन्थ है। आचार्य दुर्गदेव आचार्य दुर्गदेव दिगम्बर-परम्परा के हैं। जैन-साहित्य संशोधक में प्रकाशित 'बृहट्टिप्पणिका' नामक प्राचीन जैन-ग्रन्थ सूची में 'मरणकण्डिका' और 'मन्त्रोदधि' के कर्ता दुर्गदेव को दिगम्बर आम्नाय का आचार्य माना है। 'रिष्टसमुच्चय' की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इनके गुरु का नाम 'संयमदेव'48 था। दुर्गदेव ने 'रिष्टसमुच्चय' ग्रन्थ की रचना लक्ष्मीनिवास राजा के राज्य में कुम्भनगर नामक पहाड़ी नगर के शान्तिनाथ जिनालय में की है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह कुम्भनगर भरतपुर के निकट 'कुम्हर', 'कुम्भेर' अथवा 'कुम्भेरी' नाम का प्रसिद्ध स्थान ही है। इस ग्रन्थ की रचना शौरसेनी-प्राकृत में हुई है। ___'रिष्टसमुच्चय' की प्रशस्ति में संयमदेव और दुर्गदेव - इन दोनों की विद्वत्ता का वर्णन आया है। दुर्गदेव के गुरु संयमदेव षड्दर्शन के ज्ञाता, ज्योतिष, व्याकरण और राजनीति में पूर्ण निष्णात थे। ये सिद्धान्तशास्र के पारगामी थे और मुनियों में सर्वश्रेष्ठ थे। इन यशस्वी यमदेव के शिष्य दुर्गदेव भी विशुद्ध चरित्रवान् और सकलशास्त्रों के मर्मज्ञ पण्डित थे। दुर्गदेव ईस्वी सन् की 11वीं शती के विद्वान् हैं। दुर्गदेव की ये रचनायें उपलब्ध हैं - रिष्टसमुच्चय, अर्घकाण्ड, मरणकण्डिका, एवं मन्त्रमहोदधि। ग्रंथकर्ता के जीवन की छाप ग्रन्थ में रहती है -- इस नियम के अनुसार यह स्पष्ट है कि आचार्य दुर्गदेव एक अच्छे मन्त्रवेत्ता थे। 'मन्त्रमहोदधि' मन्त्रशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। आचार्य पद्मकीर्ति ___ 'पासणाहचरिउ' के कर्ता मुनि पद्मकीर्ति हैं। इस ग्रंथ की प्रत्येक सन्धि के अन्तिम कड़वक के पत्ते में 'पउम' शब्द का उपयोग किया गया है। 14वीं और 18वीं सन्धियों के अन्तिम पत्तों में 'पउमकित्तिमुणि' का प्रयोग आ जाता है, जिससे स्पष्ट है कि आचार्य पद्मकीर्तिमुनि ने 'पासणाहचरिउ' की रचना की। पद्मकीर्ति के गुरु जिनसेन, दादागुरु माधवसेन और परदादागुरु चन्द्रसेन थे। सेनसंघ अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है और इस ससंघ में बड़े-बड़े आचार्य उत्पन्न हुये हैं। पद्मकीर्ति दाक्षिणात्य थे, क्योंकि सेनसंघ का प्रभुत्व दक्षिण भारत में रहा है। 070 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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