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________________ गुरु-शिष्यत्व भी सिद्ध होता है। 35 इससे भी आचार्य प्रभाचन्द्र का समय ईस्वी सन् की 11वीं शती निर्णीत होता है। इनकी ये रचनायें मान्य हैं प्रमेयकमलमार्त्तण्ड : परीक्षामुख - व्याख्या; न्यायकुमुदचन्द्र : लघीयस्त्रय - व्याख्या; तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण : सर्वार्थसिद्धि-व्याख्या; शाकटायनन्यास : शाकटायनव्याकरण - व्याख्या; शब्दाम्भोजभास्कर : जैनेन्द्रव्याकरणव्याख्या; प्रवचनसारसरोजभास्कर : प्रवचनसार - व्याख्या; गद्यकथाकोष स्वतंत्र रचना; रत्नकरण्डक श्रावकाचार - टीका; समाधितंत्र - टीका; क्रियाकलाप - टीका; आत्मानुशासन - टीका; एवं महापुराण- टिप्पण । इन्होंने जिन टीकाओं का निर्माण किया है, वे टीकायें स्वतंत्र ग्रन्थ का रूप प्राप्त कर चुकी हैं। : - आचार्य लघु अनन्तवीर्य उत्तरकालवर्ती होने के कारण 'प्रमेयरत्नमाला' के रचयिता अनन्तवीर्य को लघु अनन्तवीर्य या द्वितीय अनन्तवीर्य कहा जाता है। इन्होंने 'परीक्षामुख' के सूत्रों की संक्षिप्त, किन्तु विशद व्याख्या की है। साथ ही प्रसंगतः चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, न्याय, वैशेषिक और मीमांसा दर्शनों के कतिपय सिद्धान्तों की समीक्षा भी की है। इनकी एकमात्र कृति 'प्रमेयरत्नमाला' प्राप्त है। ग्रन्थ के आरम्भ में इस टीका को इन्होंने 'परीक्षामुख- पंजिका' कहा है। प्रत्येक समुद्देश्य के अन्त में दी गयी पुष्पिकाओं में इसे 'परीक्षामुख - लघुवृत्ति' भी कहा है। अनन्तवीर्य का समय विक्रम की 12वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध प्रतिफलित होता है। 'प्रमेयकमलामार्त्तण्ड' में जिन विषयों का विस्तार से वर्णन है, उन्हीं का संक्षेप में स्पष्टरूप से कथन करना 'प्रमेयरत्माला' की विशेषता है। प्रतिपादन - शैली बड़ी सरल, विशद और हृदयग्राही है। आचार्य वीरनन्दि आचार्य वीरनन्दि सिद्धान्तवेत्ता होने के साथ जनसाधारण के मनोभावों, हृदय की विभिन्न वृत्तियों एवं विभिन्न अवस्थाओं में उत्पन्न होने वाले मानसिक विकारों के सजीव चित्रणकर्ता महाकवि थे। इनके द्वारा रचित 'चन्द्रप्रभ - महाकाव्य' इनकी काव्य-प्रतिभा का चूड़ान्त - निदर्शन है। ये नन्दिसंघ देशीयगण के आचार्य हैं। चन्द्रप्रभ के अन्त में इन्होंने जो प्रशस्ति 36 लिखी है, उससे ज्ञात होता है कि ये आचार्य अभयनन्दि के शिष्य थे। अभयनन्दि के गुरु का नाम गुणनन्दि था। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती इनके शिष्य अथवा लघु गुरुभाई प्रतीत होते हैं। इन्होंने उन्हें नमस्कार किया है। 37 वीरनन्दि का समय ईस्वी सन् 1025 से पूर्व और ईस्वी सन् 900 के बाद अर्थात् 950-999 सिद्ध होता है। आचार्य वीरनन्दि की एकमात्र रचना 'चन्द्रप्रभचरित' भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 00 63
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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