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________________ हैं। इसीलिये विद्वानों ने यह अनुमान लगा लिया कि सम्भवतः कुन्दकुन्द ही वट्टकेर थे; अतएव कुन्दकुन्द के बहुश्रुत होने के कारण वट्टकेर के बारे में अलग से कोई उल्लेख नहीं किया गया। मूलाचार की भाषा एवं विषय-वस्तु के साथ-साथ प्रतिपादन-शैली भी पर्याप्त प्राचीन होने से इसकी कुन्दकुन्द से समकालिकता भी प्रतीत होती है। मूलाचार में मुनियों के आचार के सम्बन्ध में अति-विस्तार से वर्णन है। इतनी विस्तृत सामग्री मुनिधर्म के बारे में अन्यत्र कहीं एकसाथ नहीं मिलती है। आचार्य शिवार्य ___मुनि-आचार पर 'शिवार्य' की 'भगवती आराधना' अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। इसके अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है, उससे उनकी गुरु-परम्परा एवं जीवन पर प्रकाश पड़ता है। प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आचार्य शिवार्य पाणितलभोजी होने के कारण दिगम्बर-परम्परानुयायी हैं, वे विनीत, सहिष्णु और पूर्वाचार्यों के भक्त हैं एवं इन्होंने गुरुओं से सूत्र और उसके अर्थ की सम्यक् जानकारी प्राप्त की है। प्रभाचन्द्र के 'आराधनाकथाकोष' और देवचन्द्र के 'राजावलिकथे' (कन्नड़ग्रन्थ) में शिवकोटि को स्वामी समन्तभद्र का शिष्य बतलाया है। श्री प्रेमीजी ने शिवार्य या 'शिवकोटि' को यापनीय संघ का आचार्य माना है और इनके गुरु का नाम प्रशस्ति के आधार पर 'सर्वगुप्त' सिद्ध किया है। डॉ. हीरालाल जी इस ग्रन्थ का रचनाकाल ईस्वी सन् द्वितीय-तृतीय शती मानते हैं। इस ग्रन्थ पर टीका अपराजित सूरि द्वारा लिखी गयी। टीका 7वीं से 8वीं शताब्दी की है। अतः इससे पूर्व शिवार्य का समय सुनिश्चित है। मथुरा अभिलेखों से प्राप्त संकेतों के आधार पर इनका समय ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी माना जा सकता है। शिवार्य की भगवती 'आराधना' या 'मूलाराधना' नाम की एक ही रचना उपलब्ध है। इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप - इन चार आराधनाओं का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ में 2166 गाथायें और चालीस अधिकार हैं। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय रहा है, जिससे सातवीं शताब्दी से ही इस पर टीकायें और विवृत्तियाँ लिखी जाती रही हैं। अपराजित-सूरि की विजयोदया टीका, आशाधर की मूलाराधनादर्पण टीका, प्रभाचन्द्र की आराधनापंजिका और शिवजित अरुण की भावार्थदीपिका नाम टीकायें उपलब्ध हैं। शिवार्य आराधना के अतिरिक्त तत्कालीन स्वसमय और परसमय के भी ज्ञाता थे। उन्होंने अपने विषय का उपस्थितकरण काव्यशैली में किया है। धार्मिक विषयों को सरस और चमत्कृत बनाने के लिये अलकृत शैली का व्यवहार किया है। 1042 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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