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________________ आचार्य कुन्दकुन्द मूलतत्त्वज्ञान को सुरक्षित रखते हुये उक्त समस्त आडम्बरों का दो-टूक निराकरणपूर्वक समाज को अध्यात्म-दृष्टि एवं निर्दोष आचरण-पद्धति का अत्यंत प्रभावशाली ढंग से निरूपण कर आचार्य कुन्दकुन्द ने मूल दिगम्बर जैन-आम्नाय की रक्षा ही नहीं की, अपितु उसकी अत्यंत स्पष्ट व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इसप्रकार श्रद्धा, ज्ञान एवं आचरण - इन तीनों क्षेत्रों में सही अर्थों में अभूतपूर्व 'युग-प्रवर्तक' आचार्य थे। उनके इस गरिमामय व्यक्तित्व का अखंड प्रभाव आज भी बना हुआ है, तथा आज भी जैन-परम्परा आचार्य कुन्दकुन्द के नाम से पहचानी एवं प्रमाणित की जाती है, और इसी कारण उन्हें शासननायक तीर्थंकर महावीर स्वामी, श्रुतकर्ता गौतम गणधर के नाम से मंगलरूप में सादर स्मरण किया गया है___ “मंगलं भगवदो वीरो, मंगलं गौदमो गणी। मंगलं कोण्डकुंदाइरिओ, जेण्हं धम्मोऽत्थु मंगलं॥" आचार्य कुन्दकुन्द आंध्रप्रदेश के 'अनन्तपुर' जिले की 'गुटि' तहसील में स्थित कौण्डकुन्दपुर (कौण्डकुन्दी) नामक ग्राम, जोकि उस समय अत्यंत समृद्ध नगर था, के नगरसेठ गुणकीर्ति की धर्मपरायणा पत्नी शांतला के गर्भ में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुये। गर्भकाल पूर्ण कर ईसापूर्व 108 के शार्वरी संवत्सर के माघ मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि के दिन एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। गुणकीर्ति एवं शांतला का लाडला वही बालक बड़ा होकर युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द बना। चूँकि गर्भधारण के पूर्व माँ शांतला ने स्वप्न में चन्द्रमा की चाँदनी देखी थी, अतएव बालक का नाम 'पद्मप्रभ' रखा गया। ___बालक पद्मप्रभ ने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश किया, तभी अष्टांग-महानिमित्त के ज्ञाता आचार्य 'आचार्य अनन्तवीर्य' कौण्डकुन्दी ग्राम में पधारे एवं उस बालक को देखकर बोले कि "यह बालक महान् तपस्वी एवं परमप्रतापी संत होगा, तथा जब तक जैन-परम्परा रहेगी, इस काल में इसका नाम अमर रहेगा।" मुनिराज की यह वाणी सफल सिद्ध हुई, तथा उस अल्पायु में ही वह बालक घर-बार को त्यागकर नग्न दिगम्बर-श्रमण के रूप में दीक्षित हो गया। दीक्षा के बाद उनका नाम पद्मनंदि प्रसिद्ध हुआ, तथा नंदि-संघ की पट्टावलि के अनुसार आत्मवेत्ता आचार्य जिनचन्द्र इनके दीक्षागुरु प्रतीत होते हैं। ___ 'मुनि' पद पर लगभग तैंतीस वर्ष तक निरन्तर ज्ञानाराधना एवं वैराग्यरस से ओतप्रोत तप:साधनापूर्वक दिगम्बर जैनश्रमण की कठिन चर्या का निर्दोष पालन करते हुये ईसापूर्व 64 में मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, गुरुवार के दिन चतुर्विध-संघ ने इन्हें 44 वर्ष की आयु में आचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया। इस पद पर रहते हुये चतुर्विध-संघ भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 0037
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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