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________________ 'अनुतंत्रकर्त्ता' हैं। स्पष्ट है कि वाङ्मय को मूर्तरूप देने का सर्वप्रथम कार्य इन्द्रभूति गणधर ने ही किया है। जिसप्रकार सूर्य का आलोक प्राप्त कर मनुष्य अपने नेत्रों से दूरवर्त्ती पदार्थ का भी अवलोकन कर लेता है, उसीप्रकार पूर्वाचार्यों के द्वारा निबद्ध ज्ञानसूर्य का आलोक प्राप्त कर सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों का बोध प्राप्त होता है। 'हरिवंशपुराण' में भी आगमतंत्र के मूलकर्त्ता तीर्थंकर वर्धमान ही माने गये हैं। उत्तरतंत्र के रचयिता गौतम गणधर हैं और उत्तरोत्तरतंत्र के कर्त्ता अनेक आचार्य बताये गये हैं । यहाँ यह स्मरणीय है कि ये सभी आचार्य ‘सर्वज्ञ की वाणी के अनुवादक' ही हैं। ये अपनी ओर से ऐसे किसी नये तथ्य का प्रतिपादन नहीं करते, जो तीर्थंकर को दिव्यध्वनि बहिर्भूत हो । केवल तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित तथ्यों को नये रूप और नयी शैली में अभिव्यक्त करते हैं। जैसाकि कहा गया है : -- तथाहि मूलतन्त्रस्य कर्ता तीर्थंकरः स्वयम् ततोऽप्युत्तरतन्त्रस्य गौतमाख्यो गणाग्रणीः ॥ उत्तरोत्तरतन्त्रस्य कर्तारो बहवः क्रमात् । प्रमाणं तेऽपि नः सर्वे सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः ॥2 अतएव स्पष्ट है कि श्रुत का मूलकर्त्ता तीर्थंकरों को ही माना गया है। उत्तरतंत्रकर्त्ता गणधर और उत्तरोत्तरतन्त्रकर्त्ता अन्य आचार्य हैं। इस श्रुतज्ञान का संरक्षण एवं लिपिबद्धीकरण लोकहित में इसलिये आवश्यक था, क्योंकि यह श्रुतज्ञान अमृत के समान हितकारी है, विषयवेदना से संतप्त प्राणी के लिये परमौषधि है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है जिणवयणमोसहमिणं विसयसुह - विरेयणं अमिदभूदं । जर - मरण-वाहिहरणं खयकरणं सव्व- दुक्खाणं ॥ ३ प्राणिमात्र के लिये परमहितकारी इस 'श्रुत' का नामान्तर ' आगम' ' भी है। इसके अन्य नामों में 'जिनवाणी' एवं 'सरस्वती' आदि नाम भी आचार्यों ने प्रयुक्त किये हैं । आगम का स्वरूप लिखते हुये आचार्य सोमदेव ने कहा है कि जो धर्म, · अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अवलम्बन लेकर हेय और उपादेय रूप से त्रिकालवर्ती पदार्थों का ज्ञान कराता है, उसे 'आगम' कहते हैं। तत्त्वज्ञाताओं का अभिमत है कि आगम में अविरोधेरूप से द्रव्यों, तत्त्वों और गुण- पर्यायों का कथन रहता है। लिखा है - हेयोपादेयरूपेण चतुर्वर्ग-समाश्रयात्। कलित्रय - गतानर्थान्गमयान्नागमः स्मृतः ॥ यह आगमज्ञान प्रत्यक्षज्ञान के समान ही प्रमाणभूत है। जिसप्रकार प्रत्यक्षज्ञान 00 24 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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