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________________ चौबीसों तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है, और उन्हें निर्ग्रन्थ कहा गया है। वर्तमानयुग में जैनधर्म-दर्शन का प्रथम प्रवर्तन आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव के द्वारा हुआ, जिनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इसी परम्परा में अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंतनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यनाथ, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी - ये तेईस तीर्थंकर और हुये। इन चौबीस तीर्थंकरों के द्वारा निरन्तर जैनधर्म-दर्शन की प्रभावना होती रही, और अपने व्यावहारिक, जीवनोपयोगी सिद्धांतों के बल पर जैनधर्म-दर्शन निरन्तर प्रचार-प्रसार में बना रहा। इन सभी तीर्थंकरों और उनके अनुयायियों ने लोकजीवन में अपने आचरण और विचारों द्वारा एक ऐसी अद्भुत क्रान्ति उत्पन्न की, जिसके परिणामस्वरूप सामान्यजन से लेकर बड़े-बड़े सम्राट भी इसके अनुगामी बने, और इसकी प्रभावना में उन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया। ऐतिहासिक सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट् खारवेल के बारे में तो शिलालेखीय प्रमाण मिलते हैं कि ये जैन-सम्राट् थे और इन्होंने निष्पक्ष-भाव से जैनधर्म-दर्शन की प्रभावना के लिये अभूतपूर्व योगदान किया। __इनके साथ ही सम्पूर्ण जैनाचार्य-परम्परा ने भगवान् महावीर के द्वारा प्रस्तुत एवं गौतम गणधर के द्वारा वर्गीकृत 'द्वादशांगीश्रुत' के स्मृत अंश को लिपिबद्ध करके तथा उसको पुष्ट करने वाले मौलिक-साहित्य का विपुल परिमाण में सृजन करके अतुलनीय योगदान किया है। इसी क्रम में विद्वानों के द्वारा किया गया साहित्यिकअवदान भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इन्हीं के प्रभाव से जैनधर्म विभिन्न कालखण्डों में, विभिन्न क्षेत्रों में प्रसरित होता हुआ विश्व-भर में व्याप्त हुआ। इन सभी के कारण ही भगवान् महावीर की परम्परा और उनके द्वारा प्रदत्त तत्त्वज्ञान यथायोग्य रूप में अद्यावधि-पर्यन्त अविच्छिन्न है। यद्यपि इन विषयों को प्रस्तुत करनेवाला साहित्य लिखा गया है, किन्तु सीमित परिमाण में उपयोगी सूचनाओं का संग्रह करने वाली यह प्रामाणिक कृति उन सभी पुस्तकों की आधार-सामग्री से पुष्ट होते हुये भी अपने-आप में मौलिक, विशिष्ट एवं व्यापक-उपयोगी है। तथा इस महनीय कार्य को मूर्तरूप देने के लिये विद्वान्-लेखक अभिनन्दन के योग्य हैं। -डॉ. सुदीप जैन 00xiv भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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