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________________ 1841 फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी के शुभदिन आपको मुनि-दीक्षा दी गई। दीक्षा देने वाले गुरु थे देवेन्द्रकीर्ति, जिन्होंने आपको क्षुल्लक-दीक्षा दी थी। इसके पश्चात् 'समडोली' में नेमीसागर जी की ऐलक-दीक्षा तथा वीरसागर जी की मुनि-दीक्षा के दिन समाज ने आपको 'आचार्य'-पद से अलंकृत कर दिया। आचार्य-पद पर प्रतिष्ठित होने के पश्चात् आचार्यश्री मार्ग में अपूर्व धर्मप्रभावना करते हुये 'सम्मेद शिखर जी' सन् 1928 फाल्गुन की अष्टाह्निका-पर्व पर पहुंचे। इसके पश्चात् आचार्यश्री ने अपने संघ के साथ उत्तर-भारत के प्रमुख क्षेत्रों में विहार किया और परस्पर भाईचारा एवं धार्मिक सद्भाव पैदा किया। आपने अपने शिष्य या शिष्यों की एक बड़ी पंक्ति खड़ी कर दी। जीवन-पर्यन्त उत्कृष्ट मुनिचर्या का पालन करते हुये और अन्त में 35 दिन तक उत्कृष्ट योगसाधना एवं सल्लेखना-व्रत के साथ कुंथलगिरि पर 18 सितम्बर भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को आचार्यश्री ने स्वर्ग-प्रयाण किया। आचार्यश्री शांतिसागर जी निर्ग्रन्थ-परम्परा के पुनरुद्धारक माने जाते हैं और वर्तमान में सभी जैनाचार्य उनसे अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं।42 आचार्य वीरसागर जी आचार्य शांतिसागर जी महाराज का पट्ट शिष्य होने का सौभाग्य आचार्य वीरसागर जी को मिला। जब आचार्य श्री ने यम-समाधि ले ली थी, उसी समय 26 अगस्त, 1995 शुक्रवार को इन्हें 'आचार्य'-पद प्रदान किया गया। यद्यपि उस समय वीरसागर जी वहाँ नहीं थे, लेकिन उन्हें 'आचार्य'-पद देते हुये उन्होंने कहा था कि "हम स्वयं के सन्तोष से अपने प्रथम निर्ग्रन्थ शिष्य वीरसागर को 'आचार्य' पद देते हैं।" उन्होंने उस समय अपना महत्त्वपूर्ण उपदेश निम्न शब्दों में भेजा था, "आगम के अनुसार प्रवृत्ति करना, हमारी ही तरह समाधि धारण करना और सुयोग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना, जिससे परम्परा बराबर चले।"43 आचार्य वीरसागर जी अधिक दिनों तक आचार्य-पद पर नहीं रह सके और सन् 1957 में ही जयपुर-खानियाँ में उन्होंने समाधिमरण ले लिया। उनका आत्मबल बड़ा तेज था और उसी के सहारे वे अपना मार्ग-निर्धारण करते थे। आचार्य वीरसागर जी दक्षिण-भारत में गृहस्थ-जीवन में भी अवैतनिकरूप से धर्म-शिक्षा-कार्य करते थे।44 आचार्य शिवसागर जी आचार्य वीरसागर जी के पश्चात् शांतिसागर जी परम्परा को बनाये रखने के लिये मुनि शिवसागर जी महाराज विक्रम संवत् 2014 में 'आचार्य' पद पर प्रतिष्ठित किये गये। आचार्य बनने के पश्चात् 'ब्यावर' में आपका प्रथम चातुर्मास हुआ। इसके भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 00137
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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