SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवश्य मिलता है, जो संवत् 1754 का है, उसमें उसके 'जयसवाल' गोत्र का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है, जिससे स्पष्ट जाना जाता है कि इस 'उपजाति' में भी गोत्रों की मान्यता है। सम्भवतः लम्बकंचुक, गोलाराडान्वय और गोलसिंघरान्वय ये तीनों गोलकारीय जाति के अभिसूचक हैं। 14. पद्मावती-पोरवाल24 इस जाति को 'परवार-जाति' का ही एक अंग माना जाता है, जिसका समर्थन बख्तराम साह के 'बुद्धि-विलास' से होता है। इस उपजाति का निकास 'पोमाबाई' (पद्मावती) नाम के नगर से हुआ है। यह नगरी पूर्वकाल में अत्यन्त समृद्ध थी। इसकी समृद्धि का उल्लेख खजुराहो के संवत् 1052 के शिलालेख में पाया जाता है। इस नगर में गगनचुम्बी अनेक विशाल भवन बने हुये हैं। यह नाग-राजाओं की राजधानी थी। इसकी खुदाई में अनेक नाग-राजाओं के सिक्के आदि प्राप्त हुये हैं। इस जाति में अनेक विद्वान्, त्यागी, ब्रह्मचारी और साधु-पुरुष हुये हैं और वर्तमान में भी उनके धार्मिक, श्रद्धावान एवं व्रतों के परिपालन में दृढ़ता देखी जाती है। महाकवि रइधू इस जाति में उत्पन्न हुये थे। कविवर छत्रपति एवं ब्रह्मगुलाल भी इस जाति के अंग थे। इनके द्वारा अनेक मन्दिर और मूर्तियों का निर्माण भी हुआ है। 15. चित्तौड़ा दिगम्बर-जैन-चित्तौड़ा-समाज राजस्थान के मेवाड़-प्रदेश में अधिक संख्या में निवास करता है। अकेले उदयपुर में इस समाज के 100 से भी अधिक घर हैं। यद्यपि चित्तौड़ा-जाति का उद्गम स्वयं चित्तौड़-नगर है लेकिन वर्तमान में वहाँ इस समाज का एक भी घर नहीं है। चित्तौड़ा-समाज भी 'दस्सा' एवं 'बीसा' में बंटी हुई है। समाज में गोत्रों का अस्तित्व है। विवाह के अवसर पर केवल स्वयं का गोत्र ही टाला जाता है। सारे देश में चित्तौड़ा-समाज की जनसंख्या 50 हजार के करीब होगी। 16. नागदा डूंगरपुर में 'ऊंडा-मन्दिर' नागदों एवं हूंबड़ों दोनों का कहलाता है। नागदा-समाज का मुख्य केन्द्र राजस्थान का 'बागड' एवं 'मेवाड़-प्रदेश' है। यह समाज भी 'दस्सा' एवं 'बीसा' में बंटी हुई है। 'उदयपुर' में सम्भवनाथ-दिगम्बरजैन-मन्दिर नागदा-समाज द्वारा निर्मित है। नागदा-समाज के 'उदयपुर' में ही 150-200 परिवार रहते हैं। 'सलुम्बर' में भी इस समाज के 150 से अधिक घर हैं। यह पूरा समाज अपनी प्राचीन परम्पराओं से बंधा हुआ है। यहाँ पर भी एक मन्दिर इसी जाति का है, जिसमें 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित प्राचीन मूर्तियाँ विराजमान हैं। 00130 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy