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________________ ६४ अलबेली आम्रपाली लगभग एक घटिका के पश्चात् वे दोनों सैनिक एक विशालकाय वराह को घसीट कर ला रहे थे। बिंबिसार को अत्यन्त विस्मय हुआ। शंबूक बोला--"मित्र ! धनुर्विद्या का यह शब्दवेधी चमत्कार है।" "महाराज ! मुझे अत्यन्त आश्चर्य होता है।" आश्चर्य होना स्वाभाविक है । परन्तु हमारे लिए तो यह सहज बन गया है।" शंबुक ने कहा। "किन्तु आपने लक्ष्य स्थिर कैसे किया ?" शंबुक बोला-"जयकीति ! इसकी चीख सुनकर मैंने एक अनुमान कर लिया था, किन्तु इसके पदचाप को सुनकर मैंने यह तय कर लिया कि वह कितनी दूरी पर है और वह किस गति से चल रहा है। फिर उसी अनुपात में शक्ति लगाकर मैंने बाण छोड़ा। इधर देख, वराह का मस्तिष्क बिंध चुका है। बिंबिसार ने वराह की ओर देखा। बाण उसके मस्तिष्क को चीरता हुआ गहरे में घुस गया था। वराह को वहीं छोड़कर शंबुक अपने साथियों के साथ वहां से आगे बढ़ा। एकाध कोस आगे जाने पर एक खुला मैदान आया। वह चारों ओर से सघन वृक्षों से घिरा हुआ था। सभी वहां अपने-अपने अश्वों से नीचे उतर गए। शंबुक ने जयकीति से कहा-"मित्र ! आज जो खजाना मैं तुझे बताने वाला हूं उसको आज तक मेरे पूर्वजों के अतिरिक्त किसी ने नहीं देखा है। मेरे विश्वासपात्र सैनिक उस खजाने के विषय में जानते अवश्य हैं, पर उन्होंने भी कभी उसको देखा नहीं है। बाहर के और किसी भी व्यक्ति के देखने की बात तो प्राप्त ही नहीं होती।" "महाराज ! मेरे पर आपकी विशेष कृपा है।" "मित्र ! तूने मेरी कन्या को जीवनदान दिया है।" कहकर शंबुक वहां बिछी घास पर बैठ गया। जयकीर्ति को उसने अपने पास बिठा लिया। उसने कहा- "अभी तक हम भूखे हैं। कुछ खा-पी लें फिर मैं और तू—दोनों आगे चलेंगे।" शंबुक ने अपना डिब्बा खोला । उसमें हिमकण जैसे श्वेत रंग के लड्डू थे । शंबुक ने एक लड्डू जयकीर्ति को देते हुए कहा- "मित्र ! यह हमारी विशिष्ट मिठाई है। तुम सब मधुगोलक बनाते हो, हम क्षीरगोलक बनाते हैं।" दोनों लड्डू खाने लगे। साथियों ने भी वहां भोजन किया।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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