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________________ अलबेली आम्रपाली ३३३ विलास के प्रति उत्साह जागे, इसीलिए मनोरमा को नियुक्त किया था और मनोरमा तीन-तीन महीनों के सघन प्रयास के वावजूद निष्फल हो रही थी। सुदास संध्या से पहले ही भवन पर पहुंच जाने वाला था, क्योंकि वह प्रातः भोजन कर वैशाली गया था, अभी तक घर न आने का कारण मनोरमा जान नहीं सकी । वह आज 'पद्मरानी में ऊष्मा का अभाव है' यह कहना चाहती थी और इसलिए आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी। चंपा नगरी से आने के पश्चात् तथा स्वामी के मन को समझने के बाद पद्मरानी का मन प्रसन्न नहीं रहता था। सुदास गणिका जैसा प्रेमोपचार चाहता था, नर्तकी जैसे नखरे चाहता था और नयनों को पागल बना देने वाली वेशभूषा में पद्मरानी को देखना चाहता था और पद्मरानी को यह सब प्रिय नहीं था। वह समझती थी कि रूप और यौवन तो एक वरदान है, शुभ कर्म का फल है... शुभ कर्म के वरदान को न बेचा जा सकता है और न अन्यथा किया जा सकता वह यह भी मानती थी कि नर-नारी का सहवास केवल संतान उत्पत्ति के लिए होना चाहिए, वासना की तृप्ति के लिए नहीं। यदि गृहिणी वासना-तृप्ति का साधना बनती है तो उसका मातृत्व निर्बल बन जाता है और स्वत्व भी नष्ट होने लगता है। नारी केवल भोग्य वस्तु बन जाती है। यदि ऐसा होता है तो नारी के मन की एषणाएं, भावनाएं और आशाएं जीवनभर पुरुष के पैरों तले रौंदी जाती इतने में ही भवन का नीरव और शांत वातावरण भंग हुआ। भवन के उपवन में रथ की घर-घर ध्वनि मनोरमा के कानों में पड़ी। वह बाहर आई । प्रांगण में सुदास का रथ खड़ा था और वह रथ से नीचे उतर रहा था। मनोरमा गर्वीली चाल से रथ के पास गई । सुदास ने मनोरमा को देखते ही कहा-“मनोरमा ! तेरी सेठानी क्या कर रही है ?" ___ "वे अपने खंड में हैं और मन-ही-मन कुछ गुनगुना रही हैं ।" मनोरमा ने कहा । "मनोरमा ! आज तक जो कार्य किसी ने नहीं किया, वह मैंने आज किया मनोरमा अवाक् बनकर सुदास की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखने लगी। सुदास भवन की ओर जाते-जाते बोला-"तू मेरी भोजन की व्यवस्था कर' 'मैं तेरी सेठानी से मिल लेता हूं।" "किंतु आपका महान् कार्य...?" "ओह !" कहकर पास में चल रही मनोरमा के कंधे पर हाथ रखकर सुदास
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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