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________________ अलबेली आम्रपाली २६१ जयकीति ने कहा- "सेठजी ! मैंने यह सौदा आपके नाम से स्वीकार कर लिया है।" यह सुनते ही सेठ के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई । वे आश्चर्य से जयकीति की ओर देखने लगे। नंदा भी वहीं खड़ी रह गयी। जयकीर्ति बोला- “सेठजी ! मैंने यह सौदा दो महीनों में पूरा कर देने का वादा किया है । दस रुपया प्रति तोले का भाव निश्चित किया है और इस अवधि में पूरा करने के उपलक्ष में प्रति तोले के दस कपर्दक अधिक मिलेंगे।" ___ "अरे जयकीति ! यह तो गजब का साहस किया तुमने ! हम दो सौ तोला स्वर्ण खरीद सकें, इस स्थिति में भी नहीं हैं। सौदा है 'सो वाह' अर्थात् तीन हजार मन सोने का वाह । मैं अभी महामंत्री से मिलकर सौदे को।' नंदा और उसकी सखी ने दोनों थाल बाजोट पर रखे और वहीं खड़ी रहीं। बिबिसार बोला-'सेठजी ! मैंने यह सौदा सोच-समझकर स्वीकार किया है । आपको ज्ञात नहीं है । हमारे पास दस हजार मन स्वर्ण प्राप्त कर सकें उतनी शक्ति है !" "जयकीति ! क्या आज भांग तो नहीं पी है ?" __ "नहीं सेठजी ! मैं पूर्ण स्वस्थ हूं और यथार्थ कह रहा हूं-अभी पहले हम भोजन कर लें। फिर मैं आपकी शक्ति का भान कराऊंगा।" धनदत्त सेठ विचारमग्न हो गया। दोनों भोजन करने लगे। जयकीर्ति ने पूर्ण प्रसन्न मन से भोजन किया। आज उसको भूख भी तीव्र रूप से लगी थी परन्तु चिंतातुर सेठ विशेष खा नहीं सका। चिता क्षुधा की शत्रु होती है। भोजन से निवृत्त होकर दोनों एक कमरे में गये । जयकीति ने कहा"सेठजी ! कल आपने राख के बोरे बताये थे न ?" ___ "हां, परन्तु उससे क्या ? जयकीर्ति तुमने मेरे विशाल भवन को देखकर यदि कल्पना की हो कि मैं करोड़पति हूं, तो तुम्हारी यह कल्पना व्यर्थ है । दो महीने में तो क्या बारह वर्ष तक भी मैं इतना स्वर्ण एकत्रित नहीं कर सकता... तुमने नादानी की है।" ___ "सेठजी ! आप मेरी बात सुनें. वे बोरे राख के भरे हुए नहीं हैं किंतु स्वर्णसर्जक तेजंतुरी से भरे हैं।" सेठ जयकीति को फटी आंखों से देखने लगा। जयकीर्ति बोला--"हम प्रतिदिन सौ मन स्वर्ण बनाएंगे 'इतना शीशा और पारद तो वाजार से ही मिल जाएगा। तांबा और लोहा भी प्राप्त हो जाएगा।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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