SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलबेली आम्रपाली १८६ माविका पश्चिम दरवाजे से यक्ष मन्दिर के पास पहुंची तब उसने देखा कि राघव दो अश्वों को थामे वहां खड़ा है। माविका ने संकेत से उसे उद्यान की ओर आने के लिए कहा और वह अपने रथ को उद्यान में ले गई। रथ का पीछा करने वाले चार लिच्छवी युवक बहुत-बहुत दूर रह गए थे। जब वे पश्चिम द्वार से बाहर निकले तब माध्विका अपने रथ के साथ भवन की ओर लौट रही थी। रथ में राघव भी बैठा था। बिंबिसार और धनंजय क्षण मात्र का भी विलंब किए बिना अश्व पर आरूढ़ होकर उज्जनी के मार्ग पर प्रस्थित हो गए। ४०. अभिशाप का बोझ मध्यरात्रि का सुखद क्षण । दो अश्वारोही वैशाली के दक्षिण की ओर के वनपथ पर धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। दोनों अश्वारोही पुरुषवेश में थे। एक का मस्तक खुला था। उसके केश हवा के झोंकों से हिलडुल रहे थे। दूसरे अश्वारोही के मस्तक पर पगड़ी बंधी हुई थी। उसका चेहरा अत्यन्त आकर्षक और सुन्दर लग रहा था । उसके केश दिख नहीं रहे थे । क्योंकि गहरे गुलाबी रंग की पगड़ी से उसके कान भी ढंक गए थे। दोनों अश्वारोही नगरी से लगभग तीन कोश दूर आ गए थे। वनपथ शून्य और नीरव था। वह अंधकार से व्याप्त था। ग्रीष्मकाल का अन्त होने के कारण आकाश में बादल इधर-उधर घूम रहे थे। सभी का यह अनुमान था कि वर्षा के आगमन में अभी एक पक्ष का समय शेष है । वनपथ संकीर्ण था, इसलिए दोनों अश्व एक-दूसरे के पीछे-पीछे चल रहे थे। पीछे चल रहे अश्वारोही ने कहा-"प्रियतम ! आज आप अत्यन्त विचारमग्न से लग रहे हैं !" यह कहने वाले का स्वर कोमल और मधुर था। आगे चलने वाले अश्वारोही ने कहा-"प्रिये ! ऐसा अनुमान तुमने किस आधार पर किया ?" "आपके मौन के आधार पर।" "तेरी कल्पना सत्य है। आंज मेरी एक योजना निष्फल हो गई''मेरा ही नहीं, किन्तु समग्र वैशाली का शत्रु हमारे गाल पर चांटा मारकर छिटक गया।" ___ "वैशाली का शत्रु ? हाराज ! ऐसा दुष्ट कौन था?" नारीकण्ठ ने प्रश्न किया। "महाराज प्रसेनजित का युवराज बिंबिसार ।" पुरुषकंठ ने कहा। "प्रियतम ! वह यहां कहां से आ गया ? मैंने राजगृह में सुना था कि
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy