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________________ ८ अलबेली आम्रपाली उसकी आंखों में वह विद्युत् की चमकती थी जो देखने वाले को पाताल में पहुंचा दे। उसके अधरों पर नाचने वाला हास्य तपस्वियों को भी तपोवन से खिसका देता था। उसमें वह आकर्षण था, जो विश्व के किसी भी आकर्षण को अपने में समेटने में सक्षम था। और महानाम चिन्ता की ज्वाला से घिर रहा था। कल ही आम्रपाली की सोलहवीं सालगिरह है। 'कल उसे काल-सा प्रतीत होने लगा था। कल ही महानाम को गणनायक के समक्ष अपनी पुत्री को जनपद कल्याणी के रूप में प्रस्तुत करना था। हां, कल ही। २. तेजस्विनी संध्या बीत चुकी थी। चैत्र शुक्ला चतुर्दशी की रात प्रसृत हो रही थी। नीलपद्म प्रासाद में दीपक जल उठे थे । कलरव के मिष से संगीत का नाद करते हुए पक्षीगण अपने-अपने नीड़ों में जा चुके थे। प्रासाद में प्रतिदिन की भांति आज भी रात्रि का अभिनन्दन करने वाला संगीत संपन्न हो गया था। रात्रि की दो घटिकाएं पूरी हो गई थीं। उस नीलपद्म प्रासाद में एक विशाल स्नानगृह था। उस समय आम्रपाली निरावरण होकर वहां निर्मित कृत्रिम कुण्ड में स्नान कर रही थीं। शरीर का सुगंधित उबटन गल-गलकर घुल गया था । वह अपने मुंह पर लगे उबटन को धो रही थी। उस समय उसकी अंगुलियों में सुशोभित वज्ररत्न -की मुद्रिकाएं शुक्र के तारे की तरह झिलमिल-झिलमिल कर रही थीं। मह पर लगे विलेपन के धुल जाने पर आम्रपाली के चन्द्रवदन का तेज और अधिक सौम्य और गुलाबी हो गया था। वह मृदु मंद स्वर में बोली-“माध्विका! कल..।" बीच में ही माध्विका बोल उठी- "मुझे याद है देवी ! शिशिरा आपको प्रातःकाल ही जगाएगी।" __स्नान से निवृत्त होकर जल सुन्दरी आम्रपाली उस कुण्ड से बाहर निकली। उसके अग-अंग से त्रिभुवन को विमोहित करने वाला लावण्य टपक रहा था। परिचारिकाओं ने तत्काल उसके शरीर को पोंछा । दूसरी परिचारिकाओं ने उसके निरावरण शरीर को पीले रंग के कौशेय वस्त्र से ढंक दिया। माविका आगे आई और उसने आम्रपाली के गले में पुष्पों की माला पहना दी।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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