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________________ अलबेली आम्रपाली १५९ तो सदा के लिए निर्भयता आ जाएगी और फिर लुक-छिप कर रहने की नौबत नहीं आएगी।" वह बोला-"गणनायक जी ! आपकी बात सत्य है । कलाकार को क्षोभ नहीं होता, पर दुर्भाग्य है कि मैं न कलाकार हूं, न आचार्य हूं और न मालवीय हूं। मैं तो मात्र वीणावादक हूं। केवल वीणा का प्रेमी।" ये शब्द सुनते ही आम्रपाली का मन वज्र-प्रहार से आहत-सा हो गया। उसके आनन पर भय और आशंका की रेखाएं उभर आयीं। सिंह सेनापति अवाक् रह गए। उन्होंने कहा- "आचार्य ! आप मेरा उपहास तो नहीं कर रहे हैं ? यहां सर्वत्र यही बात प्रचारित है कि आप मालव देश के निष्णात आचार्य हैं।" _ "महात्मन् ! मैं आप जैसे सुयोग्य और पिता तुल्य व्यक्ति के समझ असत्य कहना नहीं चाहता। मैंने देवी आम्रपाली को अपना छद्मनाम से ही परिचय दिया था।" "प्रियतम...!" आम्रपाली आश्चर्य भरे स्वरों में बोली। बिंबिसार ने आम्रपाली की ओर देखकर कहा-"प्रिये ! भय का कोई कारण नहीं है । मैं न कोई गुप्तचर हूं और न कोई राजपुरुष...।' बिंबिसार का वाक्य पूरा हो, उससे पूर्व ही आम्रपाली की परिचारिका माध्विका खंड में प्रविष्ट होकर सिंह सेनापति से बोली-"आचार्य सुनन्द एक महत्त्वपूर्व संदेश लेकर आए हैं । वे आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" सिंह सेनापति वहां से उठे, चरनायक सुनन्द के पास आकर पूछा-"क्यों सुनन्द ! अकस्मात् कैसे आना हुआ? क्या कोई अघटित घटित हुआ ?" "महाराज ! वंशाली गणतन्त्र को असहनीय झटका लगा है। हमारे धनुर्धर आचार्य सुदाम की मृत्यु हो गई है।" "ओह !..किसने कहा ?" सेनापति ने पूछा। "महाराज ! मैं उनकी प्राणहीन काया को स्वयं देखकर आया हूं । इनकी मृत्यु भी पद्मकेतु के समान ही हुई है।" "मतलब ! संथागार के उपवन में।" "नहीं, उन्हीं के भवन में ।" "आश्चर्य ! आश्चर्य ! चलो हम चलते हैं। इतना कहकर सिंह सेनापति ने एक परिचारिका को बुलाकर कहा- "देवी को कहना कि मैं एक आवश्यक कार्य के लिए जा रहा हूँ। फिर कभी आऊंगा।" इतना कहकर सिंह सेनापति रथ में बैठ गए। सुनन्द अग्रसर हुआ। गणनायक का रथ गतिमान हुआ।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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