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________________ अलबेली आम्रपाली १४७ " अरे ! ऐसे भय को तो मैं पैरों तले पीस डालता हूं" " फिर भी मैं चाहती हूं कि अपना मिलन एकान्त और नीरव प्रदेश में " "मेरे भवन में एकान्त नीरव रहेगा। मैं दास-दासियों को वहां से भेज दूंगा । तुम निसंकोच वहां आ जाना ।” "परंतु आपका भवन मैं नहीं जानती ।" "मैं लेने आऊंगा ! स्वर्ण रथ में...।" " रथ नहीं।" कादंबिनी ने कहा । " तब ?" "मुझे अश्वारोहण में आनन्द आता है । आप रात्रि के दूसरे प्रहर के अंतिम भाग में आएं। मैं भी गुप्त वेश में तैयार रहूंगी।" "अच्छा!” कहकर सुदाम अनेक मनोरथों को संजोये अपने भवन की ओर चल पड़ा । वह यह नहीं जानता था कि आज की रात्रि का तीसरा प्रहर उसके जीवन का अंतिम प्रहर होगा । वह बेचारा ! aria के पास 'सुबुद्धि' नाम का श्वेत अश्व था। वह यथानाम तथागुण से सम्पन्न था । मगध के महामंत्री ने उसे वह अश्व विशेष प्रयोजन से ही दिया था । वह एक बार देखे हुए मार्ग को कभी नहीं भूलता था । कादंबिनी ने तत्काल अपने वृद्ध प्रबंधक को बुलाकर कहा - " अपना सुबुद्धि अश्व महान् धनुर्धर सुदाम का भवन अभी देख आए, ऐसा प्रबंध करो।" "क्यों ?" "आज मैं वहां जाने वाली हूं । सुबुद्धि मुझे वहां सही-सलामत पहुंचा देगा ।" "जी" कहकर वृद्ध प्रबंधक ने तत्काल देवी की आज्ञा का पालन किया । तड़फन की माधुरी का आनन्द लेने के लिए वैशाली का महान् धनुर्धर सुदाम अपने भवन पर गया और कादंबिनी के स्वागत के लिए अनेक कल्पनाएं करने लगा । सबसे पहले उसने एक पलंग को शृंगारित किया और उस पर बिछाने के लिए फूलों की चादर का प्रबंध किया। भवन के समस्त दास-दासियों को रात्रि के प्रथम प्रहर में बाहर घूमने के लिए जाने की आज्ञा दे दी । महारथी सुदाम कभी दास-दासियों को इस प्रकार मुक्त नहीं करता था । पर आज ये सभी मुक्ति का आनन्द मनाने के लिए उस आज्ञा का अभिनन्दन करने लगे । संध्या हुई ।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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